4 चुल्लसेट्ठि जातक कथा: CULLAKA-SETTHI JATAKA KATHA

"नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्सा"

4 चुल्लसेट्ठि जातक कथा

CULLAKA-SETTHI JATAKA KATHA

बुद्ध के समकालीन कथा 

CULLAKA-SETTHI JATAKA KATHA
CULLAKA-SETTHI JATAKA KATHA

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"दिग्गज, दूरदर्शी आदमी", (अप्पकेनापि मेधावी) -- चुल्लसेठी जातक कथा भगवान बुद्ध ने राजगृह के पास जीवक के आम्रवन में चुल्लपंथक भिक्खु  के बारे कही।

अब यहाँ पहले चुल्लसेट्ठि के बारे मे बताया जाना चाहिये की कैसे उसका जन्म हुआ। वे कहते हैं कि राजगृह के एक धनी घर की बेटी का उसके सेवक के साथ प्रेम सम्बन्ध था, और इस डर से कि लोगों को पता चल जाएगा कि उसने क्या किया है, उसने (लड़की) उससे (सेवक) कहा, “हम यहां नहीं रह सकते। अगर मेरे माता-पिता को पता चल गया तो इस अधर्म के कारण वे हम को टुकड़े-टुकड़े कर डालेंगे, चलो हम किसी दूर देश में चले जाएं, और वहां निवास करें।" इसलिये, उनके पास जो कुछ चीजें थीं, जिन्हें लेकर वे किसी अपरिचित स्थान पर जाकर रहने के निकल पड़े, उन्हें इस बात की परवाह नहीं थी कि उनके परिवार से परे कहाँ आश्रय मिलेगा।

और वे एक निश्चित स्थान पर जा कर एक साथ रहने लगे, जिससे वह गर्भवति हो गई। और जब उसका गर्भ का समय आ गया तो उसने अपने पति से कहा, "यदि मैं अपने सगे-सम्बन्धियों से दूर इस बच्चे को जन्म दूँ तो हम दोंनो को बहुत परेशानी होगी। इसलिये, चलो हम घर चलें। पहले तो वह दिन के शुरूआत में सहतम हुआ, और फिर उसने इसे कल पर टाल दिया; और फिर उसने दिनों को यूं ही गुजर जाने दिया, "जब तक कि उसने (लड़की) ने सोचा की ये मूर्ख अपने द्वारा किये गये अपराध के कारण चलने से डरता है। लेकिन माता-पिता, आखिकार, सच्चे मित्र होते हैं। चाहे यह जाये या न जाये, मुझे जाना होगा।"

इसलिए, जैसे ही वह बाहर गया, उसने अपना घर व्यवस्थित किया, और अपने सबसे करीबी पडोसी को यह बताकर की वह अपने घर जा रही है, वह अपने रास्ते पर चल पड़ी।  वह आदमी घर लौट आया; और जब उसने पत्नि को न पाया, पड़ोसियों से पूछने पर मालूम हुआ, की वह घर चली गई है, फिर वह जल्दी-जल्दी उसके पीछे गया, और उसे मार्ग पर पाया। वहाँ प्रसव पीड़ा ने उसे जकड लिया था। और जब उसने पत्नि को डांटते हुए पूछा, क्या हुआ ?

"स्वामी, मैंने एक पुत्र को जन्म दिया है," उसने उत्तर दिया। 

"अब हम क्या करें ?" पति ने कहा। 

"जिस वजाह के लिए हम घर जा रहे थे वह सड़क पर ही घटित हो गई। वहां जाने से अब क्या फायदा ? चलो वापस चलें। "

इतना कहकर वे दोनों रुकने को तैयार हो गए। और चूँकि बच्चा सड़क पर पैदा हुआ था, इसलिए उन्होंने उसका नाम पंथक रखा। अब कुछ पहले जैसा ही हो गया; और चूंकि वह बच्चा सड़क पर पैदा हुआ था , इसलिये उन्होंने पहले जन्मे बच्चे का नाम महापंथक और दूसरे का नाम चुल्लपंथक रखा। और वे दोनों बालकों को अपने साथ लेकर वापस लौट आये जहाँ वे रहते थे। 

और जहां वे रहते थे, तो पंथक  बच्चों ने दूसरे बच्चों को चाचा, दादा, और दादी के बारे में बात करते सुना; और अपनी माँ से पूछा, माँ, बाकी बच्चे अपने चाचा, दादा, और दादी के बारे में बात करते हैं। क्या हमारे कोई रिश्तेदार नहीं हैं ?"

“निश्चित रूप से मेरे बच्चों! यहाँ तुम लोगों का कोई रिश्तेदार नहीं है, लेकिन राजगृह में तुम्हारे नाना एक धनी सेठ हैं; और वहां तुम्हारे बहुत से रिश्तेदार हैं।” “तो हम वहाँ क्यों नहीं जाते, माँ ?" बच्चों ने कहा। तब उसने बच्चों को अपने न जाने का कारण बाताया । लेकिन जब बच्चे उससे इस बारे में बार-बार बात करने लगे, तो उसने अपने पति से कहा, “ये बच्चे मुझे लगातार परेशान कर रहे हैं। क्या हमारे माता-पिता हमें देखकर हमें मार कर खा सकते हैं? आओ, हम बच्चों को उनके नाना के तरफ के रिश्तेदारों से मिलवा दें।"

"ठीक है, मैं खुद उनसे आमने-सामने मिलने की हिम्मत नहीं कर सकता, लेकिन मैं तुम्हें वहां ले जाऊंगा।"

"ठीक है, फिर, जैसे भी आप चाहें, बच्चों को उनके नाना के परिवार से परिचित कराया जाना चाहिए।"

इसलिए वे दोनों बच्चों को लेकर राजगृह पहुंचे, और शहर के द्वार पर एक भोजनालय (एक सार्वजनिक विश्राम स्थल) में ठहर गए। और माता ने दोनों बच्चों को लेकर अपने माता-पिता को अपने आने का समाचार दिया। जब उन्होंने संदेश सुना, तो उन्होंने उसे इस आशय से संदेश भेजाः सामान्य लोगों के बीच पुत्र-पुत्री के बिना रहना एक अनसुनी सी बात है।  लेकिन इन दोनों ने हमारे खिलाफ बहुत बड़ा पापा किया है कि वे हमारी नजरों के समाने खड़े नहीं हो सकते। वे इतना घन लें और जहाँ चाहे वहाँ जाकर रहें, लेकिन बच्चों को यहां भेज सकते है। और उनकी बेटी ने वह धन ले लिया जो माता-पिता ने भेजा था, और अपने बच्चों को दूत के हाथ में सौंप कर उन्हें जाने दिया।  और बच्चे अपने नाना के घर में बड़े हुए। 

उन दोनों भाइयों में चुल्लपंथक छोटा था, लेकिन महापंथक अपने नाना के साथ बुद्ध के उपदेश सुनने जाता था; स्वयं शास्ता के मुख से रोज सत्य सुनते रहने से उसका मन संसार से सन्यास की ओर मुड़ गया। और उसने अपने नाना से कहा, "यदि आप इसकी अनुमति दें, तो मुझे संघ में शामिल होना चाहिए। 

"तुम क्या कह रहे को, मेरे बच्चे ?" बूढ़े ने उत्तर दिया। "मेरे लिए सारी दुनिया की प्रब्रज्या से बढ़कर, तेरी प्रब्रज्या है। अगर तुमको लगता है की मैं सक्षम हूँ तो निस्सदेंह तुम भिक्खु  बनो।" इसलिए, उसके अनुरोध को स्वीकार करते हुए, वह उसे शास्ता के पास ले गया। 

शास्ता ने कहा, "क्यों सेठ! यहा तुम्हारा बेटा है ?" "हाँ, भंते ! यह बालक मेरा नाती है, और कहता की आपके पास प्रब्रजित (बुध्द का भिक्खु) होगा। 

शास्ता ने एक भिक्खु को बुलाया, भिक्खु को उस लड़के को प्रब्रजित करने की आज्ञा दे दी: और भिक्खु ने मानव काया की अनित्यता प्रकृति पर ध्यान के सुत्त को दोहराते हुए, उसे संघ में एक नवदिक्षित भिक्खु के रूप में स्वीकार किया। जब उसने बुद्ध के  सारे धम्म सुत्तों को कंठस्थ कर लिया, और आवश्यक पूर्ण आयु तक पहुंच गया, तो उसे उपसम्पदा प्रदान की गई; और जब वह ध्यान-सुख और मार्ग-सुख का अनुभव कर रहा था तो उसने विचार किया कि क्या वह यह आनंद चुल्लपंथक को नहीं दे सकता?

इसलिए वह अपने नाना के पास गया, और कहा महासेठ, “यदि आप की अनुमति हो, तो मैं चुल्लपंथक को संघ में शामिल करूँ।"

"भन्ते उसे प्रब्रजित करें! उसने उत्तर दिया। फिर महापंथक ने चुल्लपंथक को संघ में प्रवेश दिया और उसे 10 शीलों में स्थापित किया। लेकिन, चुल्लपंथक श्रामणेर मंदबुद्धि साबित हुआ, वह चार महा में एक भी सुत्त  नही सीख सका --

"पदुमं यथा कोकनदं सुगनथं 

पातो सिया फुल्लमवीतगन्थं,

अङ्गीरसं  पस्स विरोचमानं 

तपन्तमादिच्चमिवन्तलिक्खे।।" 

जैसे लाल-कमल या सुगंधित कोकनद आकाश में प्रकाशमान सूर्य को देख सुगंधित और प्रफुल्लित होता है, उसी प्रकार आकाश में तपने वाले सूर्य के सदृश प्रकाशयुक्त अंगिरस गोत्रीय (बुद्ध) को देखों।

बहुत समय पहले,  कश्यप बुद्ध के समय में, यह एक भिक्खु  था, जिसने स्वयं शिक्षा प्राप्त की थी, और वह अपने इस अभिमान में एक अन्य मंद-बुद्धि भिक्खु की बुद्ध-वचन सीखने के समय उसका मजाक उड़ाया था। वह भिक्खु अपने उस तिरस्कार से इतना व्याकुल हो गया कि न तो वहा कोई पाठ ही याद कर सका न ही उस अंश को सुना सका। इसके परिणाम स्वरूप अब यह दीक्षित होते हुए भी मंद-बुद्धि हो गया; यह सीखी गई प्रत्येक सुत्त भूल जाता जैसे ही वह अगला सीखता था  पिछला भूल जाता। उसे एक ही गाथा को याद करने में चार महीने बीत गए।

तब उसके बड़े भाई ने उससे कहाः चुल्लपंथक, तुम इस बुद्ध शासन के उपयुक्त नहीं हो। चार महीने में तुम एक भी गाथा  नहीं सीख सके हो, तुम अपने प्रब्रजित होने का लक्ष्य तक पहुंचने की उम्मीद कैसे कर सकते हो ? “चलो निकलो विहार से बाहर!" और महापंथक ने उसे बाहर निकाल दिया। लेकिन चुल्लपथक की बुद्ध शासन के प्रति प्रेम के कारण, वह गृहस्थ नहीं होना चाहता था।

अब उस समस भिक्षुओं को भोजन के वितरण करने की जिम्मेदारी महापंथक की थी। एक दिन कुलीन जीवक बहुत से सुगंधित फूल ले आया, और अपने आम के बाग में जाकर उन्हें शास्ता को भेंट किया, और प्रवचन सुने। फिर, अपनी जगह से उठकर, उसने बुद्ध का अभिवादन किया, और महापंथक के पास जाकर उसने पूछा, बुद्ध के साथ कितने भिक्खु हैं। 

"लगभग पांच सौ, उत्तर था।" 

"भंते ! क्या बुद्ध सहित पांच सौ भिक्खुओं के साथ कल आप मेरे घर पर भिक्षा ग्रहण करें ?"

"चुल्लपंथक नामक भिक्खु, मंद -बुद्धि है, और धर्म में कोई प्रगति नहीं करता; लेकिन मैं उसे छोड़कर सभी का निमंत्रण स्वीकार करता हूँ। 

चुल्लपंथक  ने यह सुना, और सोचा, "स्थविर इतने भिक्खुओं का निमंत्रण स्वीकार करते हैं; किन्तु मुझे छोड़कर करते हैं। निश्चित ही मेरे भाई का मेरे प्रति प्रेम ख़त्म हो गया है।  अब मुझे यहाँ इस शासन में रहने से क्या लाभ ?" मुझे गृहस्थ बनना चाहिए, दान देना चाहिए, और अच्छे काम करने चाहिए जैसे आम आदमी कर सकता है। और अगले दिन वह यह कहकर चला गया की वहा फिर से गृहस्थ होकर संसार में प्रवेश करेगा। 

अब शास्ता ने (प्रातः काल) सुबह-सुबह उठकर, जब दुनिया का (सर्वेक्षण किया) ध्यान किया, तो उन्हें इस बात का पता चला। और चुल्लपंथक से पहले जाकर, उसके जाने के रास्ते में टलने लगे। चुल्लपंथक ने कुटिया से निकल कर बुद्ध को देखा, और उनके पास जाकर, भगवान की वन्दना की तब शास्ता ने उससे कहा, “चुल्लपंथक! सुबह इस समय कहाँ जा रहा है ?”

भगवान ! मेरे भाई ने मुझे निकाल दिया है, इसलिए में फिर से संसार के मार्गों में भटकने के लिए जा रहा हूँ। “चुल्लपंथक! तुम मेरे पास प्रब्रजित हुए हो। यदि तुम्हारे भाई ने तुमको निकाल दिया, तो तुम मेरे पास क्यों नहीं आए ? अब गृहस्थ होकर क्या करेगा, उससे क्या लाभ होगा। मेरे पास रहना।" और चुल्लपथक को गंधकुटी के  द्वार पर बैठा दिया, और उसे बहुत सफेद कपड़े का एक टुकड़ा दिया, और इस कपड़े को 'रजो हरंण रजो हरंण' कह कर ऊपर से नीचे रुगड़ो। इतना कहकर शास्ता, समय की सूचना पा भिक्खु संघ के साथ जीवक के घर चले गये, और वहाँ बिछे आसन पर बैठ गये ।

अब चुल्लपंथक, सूर्य की ओर टकटकी लगाए, कपड़ा संभालते हुए बैठ गया और शब्दों को दोहराता रहा, 'रजो हरंण रजो हरंण'। और जैसे ही उसने ऐसा किया, कपड़ा गंदा हो गया, तब उसने सोचाः अभी यह कपड़े का टुकड़ा साफ व सफेद था, लेकिन मेरे माध्यम से इसने अपनी मूल स्थिति खो दी है, और गंदा हो गया है। उसे यहा समझ आया कि "सभी संस्कार अनित्य (नश्वर या परिवर्तनशील) है" और उसने क्षय और मृत्यु की वास्तविकता को महसूस किया, जिससे उसकी मन की आँखें खुल (विदर्शना-भावना या समाधि बढ़ाई) गई !

तब शास्ता ने, यह जानकर कि चुल्लपंथक का मन (चित्त) विदर्शना- भावना या समाधि में लग गया तब तथागत स्वयं उसके सामने एक शानदार दिव्य रूप में प्रकट हुऐ, मानों अदृश्य रूप में उसके सामने बैठे हो, और बोले, “चुल्लपंथक! तुम यही मत सोचो कि यह कपड़ा मैल से मैला हो गया, तुम्हारे अन्दर भी वासना, चिंता, और पाप के दाग है, तुम्हें इन्हें हटाना होगा।" और उस समय ये गाथाएं कहीं --

"रागो रजो न च  पन रेणु वुच्चति 

रागस्सेतं अधिवचनं रजोति,

एतं रंज विप्पजहित्व भिक्खवो 

विहरन्ति ते विगतरजस्स सासने।। 

ये धूल नहीं, वासना है, सच में यही दाग है, यह 'दाग' वासना के लिए सही शब्द है। ये वे भिक्खु हैं जिन्होंने इस दाग को मिटा दिया है, जो धूल मुक्त  धूल रहित शासन में विचरते हैं।  

दोसो रजो न च  पन रेणु वुच्चति 

दोसस्सेतं अधिवचनं रजोति,

एतं रंज विप्पजहित्व भिक्खवो 

विहरन्ति ते विगतरजस्स सासने।। 

ये धूल नहीं, गुस्सा है, सच में यही दाग है, यह 'दाग' गुस्सा के लिए सही शब्द है। ये वे भिक्खु हैं जिन्होंने इस दाग को मिटा दिया है, जो धूल मुक्त  धूल रहित शासन में विचरते हैं।  

मोहो रजो न च  पन रेणु वुच्चति 

मोहस्सेतं अधिवचनं रजोति,

एतं रंज विप्पजहित्व भिक्खवो 

विहरन्ति ते विगतरजस्स सासने।। 

ये धूल नहीं, मोह है, सच में यही दाग है, यह 'दाग' मोह के लिए सही शब्द है। ये वे भिक्खु हैं जिन्होंने इस दाग को मिटा दिया है, जो धूल मुक्त होकर धूल रहित शासन में विचरते हैं

जैसे ही गाथा समाप्त हुई, चुल्लपंथक अर्हत्व को प्राप्त हुआ। और अर्हत्व के साथ ही उसे बौद्धिक उपहार भी प्राप्त हुआ; जिससे उसने तीनों पिटको को भी समझ लिया।

बहुत समय पहले, यह एक राजा था, जब यह एक बार शहर का चक्कर लगा रहा था, तो उसके माथे पर पसीना बह रहा था, उसने अपने शुद्ध सफेद वस्त्र से अपने माथे  को पौछा। जब वस्त्र गंदा हो गया, तो उसने सोचा, "इस शरीर के कारण शुद्ध सफेद वस्त्र अपनी पूर्व की स्थिति खो चुका है, और गंदा हो गया है। वास्तव में सभी संसार अनित्य (परिवर्तनिय) हैं!" और इस प्रकार उसे अनित्यता के सिद्धांत का एहसास हुआ। इसी कारण इस जन्म में भी उसकी अर्हत्व प्राप्ति का प्रत्यय (साधन) 'रजो हरंण‍ हुआ।

कुलीन (कौमारभृत्य) जीवक बुद्ध के दान (दक्षिणा या प्रस्तुति) के लिए जल लाया। बुद्ध ने 'जीवक! “क्या विहार में अभी और भिक्खु  नहीं है, कह कर हाथ से पात्र को ढक दिया।”

महापंथक  ने कहा, “नहीं, बुद्ध, वहाँ कोई भिक्खु नहीं है।" 

बुद्ध ने कहा. “जीवक! हैं।” जीवक ने आदमी भेजा, तुम जाओं और देखो कि विहार में कोई भिक्खु  है या नहीं ?"

उस पल चुल्लपंथक ने सोचा, "मेरा भाई कहता है कि यहाँ (विहार में) कोई भिक्खु नहीं है; उसे. दिखाऊँगा कि यहां कोई भिक्खु  है।" और उसने आम के बगीचे को भिक्खुओं से भर दिया --एक हजार भिक्खु , जिनमें से प्रत्येक एक दूसरे से भिन्न थे - कुछ वस्त्र (चीवर या भिक्खु वस्त्र) बना थे, कुछ उनकी मरम्मत कर रहे थे, और कुछ धम्म को दोहरा रहे थे, वह आदमी बिहार में सभी भिक्खुओं को देखकर वापस आया. और जीवक को बताया, “आर्य, पूरा आम्रवन भिक्खुओं से जीवंत है।"

इसी संदर्भ में उनके बारे में कहा गया है कि, चुल्लपंथक, अपने आप को हजार गुना भिन्न-भिन्न रूपों में बढ़ाकर रमणीय आम्रवन में भोजन का निमंत्रण मिलने तक बैठे रहे। 

तब बुद्ध ने कहा, जाओ, और कहना "बुद्ध चुल्लपंथक को बुला रहे हैं," हजारों भिक्खु बोल उठे, मैं चुल्लपंथक हूँ।  मैं चुल्लपंथक हूँ।  आदमी वापस आया और बोला, "बुद्ध वे सभी भिक्खु  कहते हैं की मैं चुल्लपंथक हूँ।"

"फिर जाओ और सबसे पहले जो कहे,  मैं चुल्लपंथक हूँ। उसका हाथ पकड़ लेना और बाकि सब गायब हो जाएंगे।" और उसने वैसा ही किया, और अन्य सभी गायब हो गए, और स्थविर  उस आदमी  के साथ आ गए। 

और तथागत ने, भोजन के बाद जीवक को संबोधित किया और कहा, “जीवक! चुल्लपंथक का पात्र ले लो; वह तुम्हारे दान का अनुमोदन (आर्शीवाद) करेगा।" और उसने वैसा ही किया। स्थविर, एक युवा शेर की तरह निडरता से धम्म का सारांश निकाल कर अनुमोदन कर देते हैं।

तब शास्ता अपने आसन से उठे और भिक्खु -संघ के साथ विहार में लौट आये। अब भिक्खुओं ने अपने दैनिक कर्तव्यों को पूरा कर लिया, तो शास्ता उठे और अपनी कुटिया के दरवाजे पर खड़े होकर, उन्हें ध्यान का विषय बताते हुए प्रवचन दिया। प्रवचन समाप्त कर, अपनी सुगंधित गंधकुटी में प्रवेश कर दाहिनी करवट लेट गए।

शाम को, सभी चीवर पहने हुए भिक्खु  अलग-अलग स्थानों से धम्म-सभा में एकत्रित हुए, और बुद्ध के चारों ओर कमल के मधुर पुष्पों की तरह घेर कर बैठ, बुद्ध के गुणों का वर्णन कर रहे थे। “आयुष्मानों, महापंथक को चुल्लपंथक की क्षमता का पता नहीं था, और उसने उसे एक मूर्ख समझ,  संघ से निष्कासित कर दिया था क्योंकि चार महीने में वह एक गाया भी सीख नहीं सका: बुद्ध ने, सत्य पर अपनी बेजोड़ महारत से, प्रातःकाल और मध्यान्ह के भोजन के समय के भीतर ही उसे अर्हत्व फल में प्रतिष्ठित कर दिया, उसकी बौद्धिक शक्तियों के द्वारा उसने सभी धम्म ज्ञान को समझ लिया। अहो ! बुद्धों का बल कितना महान है!"

और तब भगवान ने, यह जाना कि धम्म-सभा में यह बातचीत हो रही है, वहाँ जाने का निश्चय किया; और अपने आसन से उठ कर, अपनी संघाटी (भिक्खु  वस्त्र) धारण किया, बिजली के समान पट्टी को (काय बन्धन) बाँधा: लाल कम्बल के समान अपने चीवर को पहना और फिर सुगन्धित गंधकुटी से निकले, और मस्त हाथी का पीछा करने वाले सिंह के समान, अनंत  बुद्ध-लीला के साथ, यह बीछे श्रेष्ट बुद्धासन पर चढ़ छः वर्ण की बुद्ध किरणें फैलाते, समुद्र-गर्भ को प्रकाशित करने वाले, युगन्धर पर्वत के शिखर पर स्थित बाल सूर्य की भांति, आसन के बीच में बैठे। 

और बुद्ध के आते ही भिक्खु संघ बातचीत छोड़ चुप हो गया। शास्ता ने सौम्यता और मैत्रीपूर्ण चित्त से उनकी ओर देखा, और सोचा, "यहा सभा अति सुन्दर है; न कोई हाथ हिलता है, न पैर हिलता है, न खांसने का या छींकने की आवाज आती है; यदि मैं जीवन भर यहां बिना बोले बैठा रहूं, तो इन सभी लोगों में से एक भी बुद्ध की महिमा से अभिभूत और बुद्ध की महिमा से अँधा होकर पहले बोलने का साहस नहीं करेगा।" स्वयं ही प्रथम बोलने का निश्चय कर भगवान ने मधुर स्वर में भिक्खुओं को आमंत्रित कर पूछा --"भिक्खुओं ! इस समय किस बातचीत में लगे थे ? इस समय क्या कथा चल रही थी ?"

"भगवान ! हम यहाँ पर किसी सांसारिक वस्तु के बारे में बात कर नहीं रहे थे: हम यहाँ आपका गुणानुवाद ही कर रहे थे।" और उन्होंने अपनी बातचीत का विषय बताया। जब भगवान ने सुना तो कहा, "भिक्खु! चुल्लपंथक ने इसी जन्म मेरे द्वारा धम्म में महानता नहीं प्राप्त की है, पूर्व जन्म में भी मेरे वजह से भोगों में महानता पायी थी।" भिक्खुओं ने तथागत से पूछा की यहा कैसे ? बताएं भगवान! तब बुद्ध ने उस बात को प्रकट किया जो जन्मों के परिवर्तन से छिपी हुयी थी। 

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बुद्ध के अतीत कल में 

बहुत समय पहले कशी के बनारस में ब्रह्मदत्त राजा के राज्य में, बोधिसत्त्व का जन्म एक कोषाध्यक्ष परिवार में हुआ; और जब वह बड़ा हुआ तो उसे कोषाध्यक्ष का पद मिला और वह चुल्लसेठी कहलाया। वह बुद्धिमान और कुशल था और सब लक्षण समझता था। एक दिन जब वह राजा के पास जा रहा था तो उसने रास्ते में एक मरा हुआ चूहा देखा; और उस समय नक्षत्रों की स्थिति पर विचार करते हुए, उसने कहा, "कोई भी युवा व्यक्ति जिसके पास आँखे हैं, वह इस चीज को उठाकर, व्यापार शुरू कर सकता है और भार्या रख सकता है।  

CULLAKA-SETTHI JATAKA KATHA
CULLAKA-SETTHI JATAKA KATHA

एक अच्छे कुल में जन्मे लड़के ने, जो गरीबी में पड गया था, कोषाध्यक्ष की बात सुनी और सोचने लगा, “यह एक ऐसा व्यक्ति है जो बिना किसी कारण के कोई बात नहीं कहता, उसने चूहा लिया, और उसे दूसरे दुकानदार को बिल्ली के खाने को दे दिया, जिसके लिए उसे कुछ पैसा मिला और उस पैसे से उसने गुड़ खरीदा, और एक बर्तन में पानी लिया और माला बनाने वालों को जंगल से लौटते देखा, उसने उन्हें पानी के साथ गुड़ के टुकड़े दिए, एक-एक मुट्ठी भर कर उन्होंने उसे फूल  दिये और अगले दिन, उसने फूलों की किमत के साथ और गुड़ खरीदा और उस दिन फूलों के बगीचे में चला गया; जब माली चले गये तो उन्होंने उसे फूलों की झाड़ियाँ दी जिनमें से आधे फूल तोड़ लिए गए थे। इस तरह थोड़े ही समय में उसे आठ पैसे प्राप्त किये। 

कुछ समय एक बरसाती हवा वाले दिन (आँधी वाले दिन), राजा के बगीचे में हवा से बहुत सारी सूखी लकड़ियाँ, शाखाएँ, और पत्तियाँ गिर पड़े, और माली को उनसे छुटकारा पाने का कोई रास्ता नहीं दिख रहा था। युवक ने जाकर माली से कहा, “अगर तुम मुझे ये लकड़ियाँ और पत्ते दोगे तो मैं इन्हें रास्ते से हटा दूँगा।" इस पर माली सहमत हो गया और उसे ले जाने को कहा।

चुल्लका (चुल्लसेठी) का शिष्य बच्चों के खेल के मैदान में गया और उन्हें गुड़ देकर सारी पत्तियाँ और लकड़ियाँ पलक झपकते ही इकट्ठी कर ली और बगीचे के गेट पर ढेर लगाकर रख दी। तभी राजा का कुम्हार शाही परिवार के लिए बर्तन पकाने के लिए लकड़ी की तलाश कर रहा था, और यह ढेर देखकर उसने उससे लकड़ी खरीद ली। उस दिन चुल्लका के शिष्य को अपनी जलाऊ लकड़ी बेचने से सोलह पैसे या कार्षापण, पानी के बर्तन और दुसरे पांच बर्तन इत्यादि मिले। इस प्रकार 24 पैसे या कार्षापण प्राप्त करने के बाद, उसने सोचा, “यह मेरे लिए एक अच्छी योजना होगी, कि शहर के द्वार से दूर एक जगह पर गया, और वहां पानी का एक बर्तन रखकर, पांच सौ घास काटने वालों को पानी पिलाने लगा।"

उन्होंने कहा, "मित्र! तुमने हमारी बहुत सेवा की है, हम तुम्हारे लिए क्या कर सकते हैं ?"

उसने कहा, "जरूरत पड़ने पर तुम लोग मेरी मदद कर देना।" और फिर इधर-उधर घूमते हुए, उसने जमीन के रास्ते के एक व्यापारी और समुद्र के एक व्यापारी से मित्रता कर ली।  और व्यापारी ने उससे कहा, "कल घोड़ों का एक व्यापारी पाँच सौ घोड़ों के साथ नगर में आ रहा है।" यहाँ सुनकर उसने घास काटने वालों से कहा, "आज तुम सब मुझे घास का एक-एक गटठर दे दो, और जब तक मैं अपनी घास का निपटान न कर दूँ, तब तक अपनी घास मत बेचना।"

"ठीक है!" उन्होंने सहमति व्यक्त की, और पाँच सौ बण्डल लाकर उसके घर में रख दिए। घोड़े का व्यापारी पुरे शहर में अपने घोड़ों के लिए घास नहीं जुटा सका, इसलिए उसने एक हजार पेंस (अंग्रेजी शब्द पैनी का बहुवचन) में उसकी घास खरीद ली। 

कुछ दिनों बाद उसके मित्र, जो समुद्र का व्यापारी था, ने उसे बताया की एक बड़ा जहाज बंदरगाह पर आया है। उसने सोचा, "यह एक अच्छी योजना होगी, "आठ पैसे में एक गाड़ी मिल गई जो किराए पर थी, उसके सभी उचित परिचारकों के साथ; और सम्मान का बड़ा प्रदर्शन करते हुए बंदरगाह पर पहुंचे और जहाज के माल के लिए जमा राशि के रूप में अपनी अंगूठी दे दी। तब उसने कुछ ही दुरी पर एक तम्बू बनवाया, और उस में बैठ कर अपने सेवकों को आदेश दिया की जब भी व्यापारी बाहर से आये तो उन्हें तीन पहरों के साथ इसकी सुचना दी जाये। 

यह सुनकर की एक जहाज आया है, लगभग सौ व्यापारी सामान खरीदने के लिए बनारस से आये। 

उसने कहा गया, "आप माल नहीं खरीद सकते; फलां जगह के एक बड़े व्यापरी ने पहले ही उनके लिए पेशगी दे दी है। 

यह सुनकर वे उसके पास गए, और उसके सेवकों ने उन्हें तीन पहरों लिवा कर जैसा की सहमति हुयी थी अपने आने की घोषणा की। प्रत्येक व्यापारी ने जहाज में शेयर धारक बनने के लिए उसे एक हजार दिए; और शेष हिस्से को छोड़ने के लिए उसे एक हजार और दिए; और इस प्रकार उन्होंने खुद को माल का मालिक बना लिया। 

अतः चुल्लका का शिष्य अपने साथ दो लाख लेकर बनारस लौट आया। और कृतज्ञता की भावना से, वह एक लाख लेकर कोषाध्यक्ष के पास गया। तब कोषाध्यक्ष ने उससे पूछा, “क्या करके तुमने यह पैसा या धन कमाया।

उसने कहा, “आपकी बात का पालन करते हुए मैंने इसे चार महीने के भीतर हासिल किया है, "और मरे हुए चूहे से शुरू करके पूरी कहानी बताई। और जब उस कोषाध्यक्ष ने उसकी कहानी सुनी, तो उसने सोचा, “इस तरह के लड़के को किसी और के हाथों में जाने देना कभी अच्छा नही होगा।" इसलिए उसने अपनी बड़ी बेटी का विवाह उससे कर दिया, और उसे परिवार की सारी सम्पत्ति का उत्तराधिकारी बना दिया। और जब कोषाध्यक्ष की मृत्यु हो गई, तो उसे नगर कोषाध्याक्ष का पद प्राप्त हुआ। बोधिसत्व भी कर्मानुसार चुत्य हुए।

जब बुद्ध ने धम्मोपदेश कह, सम्यक सम्बुद्ध होने की अवस्था में यह गाथा कही

अप्पकेनापि मेधावी  पाभतेन विचक्खणो,

समुट्ठापेति अत्तांन अंणु अग्निं व सन्धमं ।

मेधावी या चतुर पुरुष थोड़ी सी आग को फूंक मारकर बढ़ा लेने की तरह, थोड़े से भी मूलघन से अपने को उन्नत कर लेता है।

इस प्रकार शास्त्रा ने जो कहा था उसे स्पष्ट कर दिया, “भिक्खुओं! चुल्लपथक अब ही मेरे माध्यम से धर्म में महान नहीं बन गया है: पहले भी मेरे कारण वह धन में महान बना था।

शास्ता ने दोनों कथा को सुना कर मेल मिला कर जातक का सारांश निकाल दिया। उस समय का चुल्लका शिष्य अब का चुल्लपंथक था, और चुल्लका का कोषाध्यक्ष तो स्वयं में ही था।

इन्हे भी देखें :



कथा समाप्त !

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