बौद्ध भिक्षु सारिपुत्त का जीवनवृत्तांत: Buddhist Monks

 

बौद्ध भिक्षु सारिपुत्त का जीवनवृत्तांत

बौद्ध भिक्षु
भिक्षु सारिपुत्त

इस लेख के माध्यम से हम बौद्ध भिक्षु सारिपुत्त के जीवन और उनके बौध्द धम्म में प्रवेश एवं बुद्ध धम्म में  उनका स्थान क्या था, के बारे में विस्तार से जानेगें। बुद्ध के समय में बहुत सारे  बौद्ध भिक्षु थे। लेकिन सभी के बारे में जानकारी मिलना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है। भगवान बुद्ध के धम्म, तिपिटक में कई बौद्ध भिक्षुओं जैसे सारिपुत्त, मोग्गालाना, कशयप, उपालि, आनंद, नन्द, राहुल, संजय और भी बहुत सारे नाम तिपिटक में मौजूद हैं । 

प्रमुख बौद्ध भिक्षु के नाम:

  1. सारिपुत्त,
  2. मोग्गालाना,
  3. कशयप, 
  4. उपालि, 
  5. आनंद, 
  6. नन्द, 
  7. राहुल, 
  8. संजय,
  9. अँगुलिमाल 

बौद्ध भिक्षु सारिपुत्त:

बुद्ध के समय भिक्षु सारिपुत्त  बुद्ध के धम्म सेनापति के रूप थे। जौहरी रत्न को देखते ही उसका मूल्य जान लेता है । कुशल वैद्य बीमार को देखने मात्र से रोग का निदान लगा लेता है । उसी प्रकार सारिपुत्र और मौद्गल्यायन को देखते ही भगवान ने उन्हें पहचान लिया और भिक्षुओं से कहा, " य दोनों मेरे अग्रश्रावक होंगे ।"

सारिपुत्र का जन्म नालक ग्राम में हुआ था । उनके पिता वंगन्त और माता रूपसारी थी। ' गांव के परिवारों में उनका परिवार प्रधान माना जाता था । सारिपुत्र ज्येष्ठ पुत्र थे। घर में वे उपतिष्य नाम से जाने जाते थे ।' बाद में माता के नाम पर सारिपुत्र ' के नाम से प्रसिद्ध हुये । 

सारिपुत्र के पिता का परिवार काफी बड़ा था और वैभव सम्पन्न हो । चुन्द, उपसेन, और रेवत नाम के उनको तीन भाई थे तथा चाला, उपचाला और सिसूपचाला नाम की तीन बहने भी थीं। बाद में वे सब क्रमशः प्रव्रजित हुयीं। सारिपुत्र और मौद्गल्यायन के परिवार में सात पीढ़ियों से मंत्री संबंध थे। इसीलिये दोनों 'बचपन से ही मित्र थे। कहा जाता है कि सारिपुत्र के पास पांच सौ पालकियाँ थी और मौद्गल्यायन के पास पांच सौं गाड़ियाँ जिन में शिक्षित अश्व  जोते जाते थे । 

एक दिन दोनों मित्र व्यंगात्मक नाटक देखने गये । उस नाटक के किसी विशेष दृश्य के कारण उन्हें वस्तुओं की असारता का ज्ञान हुआ जिस से दोनों ने गृहत्याग का निश्चय किया। घर से बेघर हो दोनों परिव्राजक भेष में साधना करते हुये काफी धूमें। भ्रमण के पश्चान वे राजगृह में संजय परिव्राजक के शिष्य बन कर रहने लगे । अल्पकाल में ही दोनों संजय के दाये बाये हाथ के समान स्थान प्राप्त कर ढाई सौं शिष्यों का संचालन करने लगे । किन्तु दोनों मित्र (?) अपनी वर्तमान परिस्थिति से संतुष्ट नहीं थे। संजय के पास उनके लिये कोई  नया दर्शन जानने लायक नहीं था । वही रहते दोनों ने आपस में प्रतिज्ञा की कि जो भी प्रथम अमृत सत्य को प्राप्त करें वह दूसरे को बताएँ । 

भगवान बुद्ध विशाल भिक्षु संघ को साथ ले उरुवेला से राजगृह पधारें थे । बोधिसत्त्व अवस्था में मगधराज को बुद्ध होने पर दर्शन देने का बचन का ख्याल कर ही भगवान राजगृह गये थे । 

बौद्ध भिक्षु सारिपुत्त का बुद्ध शासन में प्रवेश:

उस समय भगवान वेलुवन में विहार करते थे । आयुष्मान् अश्वजित पूर्वान्ह समय चीवर पहन और पात्र लेकर अतिसुंदर आलोकन विलोकन के  साथ नीचीं नजर और संयम से राजगृह में भिक्षा के लिये प्रविष्ट हुये । सारिपुत्र परिव्राजक ने उन्हें देखा और सोचा, " लोक में अर्हत् या अर्हत् मार्ग पर आरुढ हैं, यह भिक्षु उन में से एक है । क्यों न मैं इस भिक्षु के पास जाकर पूछू-" आवुस ! तुम किस के नाम पर प्रब्रजित हुये हो ? तुम्हारा शास्ता (गुरु) कौन हैं ? तुम किस के धर्म को मानते हो ? " किन्तु उन्होंने शिष्टाचार का ख्याल कर-सोचा कि यह उनसे प्रश्न पूछने का समय नहीं है । वे घर-घर भिक्षा के लिये घूम रहे हैं। क्यों न मैं उनके पीछे-पीछे जावूं ?"

भिक्षा के अनंतर एकांत स्थान जा आयुष्मान् अश्वजित ने भोजन किया । उनके भोजनोपरांत सारिपुत्र उनके पास गये और अभिवादन कर बोले, आवस तुम्हारी इंद्रिया प्रसन्न हैं, तुम्हारा छबि वर्ण परिशुद्ध तथा उज्वल है, तुम्हारा
शास्ता कौन है और तुम किसका धर्म मानते हो ?" 
   
आवुस ! शाक्य कुल से प्रव्रजित शाक्य पुत्र जो महा श्रमण हैं उन्हीं भगवान को गुरु मान में प्रब्रजित हुआ । वे ही भगवान मेरे शास्ता हैं । मैं उन्हीं भगवान का धर्म मानता हूँ, भिक्षु अश्वजित ने उत्तर दिया ।" 
 
"आयुष्मान् के शास्ता किस सिद्धांत को मानते हैं ? किस सिद्धांत का उपदेश देते हैं ?

"आवुस मैं नया हूँ, इस धर्म में अभी मैं नया हीं प्रव्रजित हुआ हूँ। मैं तुम्हें विस्तार से नहीं बता सकता किन्तु संक्षेप में कह सकता हूँ ।" 
   
सारिपुत्र परिव्राजक बोले, " ठीक है मित्र । कम या अधिक जितना भी हो कहो । सारांश ही क्यों न हो। " अश्वजितने कहा-

' ये धम्मा हेतुप्प भवा,
हेतुतेसं तथागतो आह ।
तेसंचयो निरोधो,
एवं वादी महासमनो ।

" जितने भी धर्म हैं वे सब कारण (हेतु) से उत्पन्न होते है, इनका हेतु (कारण) तथागत बतलाते हैं और उनका निरोध (विनाश) का मार्ग बतलाते हैं । महाश्रमण इसी सिद्धांत को मानते हैं ।

"भिक्षु अश्वजित द्वारा सुनाई गई उक्त गाथा सारिपुत्र ने कई बार दोहराई। उसे अच्छी तरह समझा । उससे उनकी समझ में आ गया कि संसार में जो भी विद्यमान है, जो कुछ समुदाय धर्म हैं वे सब निरोध धर्म हैं, सब
विनष्ट होने वाले हैं । उन्हें परिशुद्ध ज्ञान दृष्टि मिली, धर्म चक्षु उत्पन्न हुई ।

वहां से सारिपुत्र अपने मित्र मौद्गल्यायन को मिलने गये । उन्हें दूर से ही आते देख मौद्गल्यायन ने आश्चर्य से पूछा, “आवुस तुम्हारी इन्द्रिया प्रसन्न हैं । तुम्हारा वर्ण तेजस्वी एवं उज्वल है । मित्र तुमने अमृत को तो नहीं पाया ? 

"हाँ! मित्र ! अमृत पा लिया । 
" मित्र तुमने अमृत को कैसे पाया ?"

"सारिपुत्र ने आदि से अंत तक अश्वजित की मुलाखत का वर्णन किया । पूर्व प्रतिज्ञा के अनुसार उन्हों ने मौद्गल्यायन को अश्वजित द्वारा उपदिष्ट गाथा सुनाई। इससे मौद्गल्यायन को भी ज्ञान चक्षु उत्पन्न हुई। उन्हों ने
सारिपुत्र से कहा, "मित्र भगवान के पास चलें । वे हमारे शास्ता हैं । पहले ये ढाई सौं परिव्राजक जो हमारे आश्रय से रहते हैं, उन्हें भी देख लें । उन्हें कह दे कि जैसी उनकी इच्छा है वैसा करें ।" 

दोनों मित्र अपने ढाई सौ सहधर्मियों के पास गये और अपना निर्णय सुनाया, "आवुसो हम भगवान बुद्ध के पास जा रहे हैं। वे अब से हमारे शास्ता होंगे ।"

वे बोले, “ हम दोनों के आश्रय से आप लोगों को देख कर यहाँ रह रहे हैं। यदि आप भगवान का शिष्यत्व ग्रहण करते हैं तो हम भी आपके साथ चलते हैं ।” सब को लेकर दोनों मित्र संजय परिव्राजक के पास गयें। उन्हों ने
संजय से कहा, "आयुष्मान् हम भगवान बुद्ध के पास जा रहे है, वे ही हमारे शास्ता होंगे ।”

आयुष्मानो बस करो ! मत जाओं उनके पास। हम तीनों मिल कर इस पारिव्राजक गण का नेतृत्व करेंगे ।" संजय ने दोनों को सलाह दी पर वे तो संजय को भी अपने साथ ले जाना चाहते थे। मित्रों ने तीन बार उनसे निवेदन किया
और संजय ने तीनों बार जाने से मना किया । अन्त में संजय को वहीं छोड़ ढ़ाई सौं परिव्राजकों को साथ लिये वे भगवान के पास वेलुवन गये ।

भगवान ने सारिपुत्र और मौद्गल्यायन को दूर से ही आते देख भिक्षुओं से कहा, “भिक्षुओं ये जो दो मित्र कोलित ( मौद्गल्यायन ) और उपतिष्य (सारिपुत्र ) आ रहे हैं, मेरे अग्रश्रावक (प्रधान शिष्य) होंगे ।” 

सारिपुत्र- मौद्गल्यायन भगवान के समीपस्थ गये । उन्हों ने भगवान के चरणों में सिर रख याचना की, भन्ते हमें भगवान के पास प्रव्रज्या मिले, उपसंपदा मिलें ।”

भगवान ने दीक्षित करने वाले सूत्र को दोहराया, " भिक्षुओं आओ, धर्म  सुआख्यात है । अच्छी प्रकार दुःख के क्षय के लिये ब्रह्मचर्य-विचरण करो।" यही उनकी उपसंपदा हुई ।

सारिपुत्र बहुत ही प्रत्युत्पन्नमति थे । अश्वजित के मुंह से गाथा सुनने के तुरंत बाद वे स्रोतापन्न हुये । सारिपुत्र से गाथा सुन कर कोलित भगवान के पास तुरंत जाना चाहते थे । परंतु सारिपुत्र हमेशा अपने मार्गदर्शकों के प्रति इमानदार रहें थे । उन्होंने सलाह की कि पहले संजय के पास जाएं और उन्हें भी साथ ले जाए किन्तु संजय ने साथ चलने से इनकार कर दिया था ।

मौद्गल्यायन ने प्रव्रज्या के सातवे दिन ही अहंत् पद प्राप्त कर लिया था परंतु सारिपुत्र को इस के लिये दो सप्ताह (14दिन) लगे। उस समय वे भगवान के साथ  राजगृह में सूकरखंत्तलेन में विहार करते थे । वहीं भगवान ने दीघनख को  दीघनख सुत्त या वेदना परिग्गह सुत्त' का उपदेश दिया। उस वक्त सारिपुत्र भगवान को पंखा झल रहे थे । उपदेश के अंत में वे अर्हत् पद को प्राप्त हुये । दीघनख परिब्राजक सारिपुत्र का भानजा था ।

सारिपुत्र-मौद्गल्यायन भगवान के दाये बाये हाथ के समान थे ।  विशेष अवसरों पर भगवान दोनों को अपने साथ ले जाया करते थे । 

भगवान प्रथम बार कपिलवस्तु पधारे थे । राजा शुद्धोदन के महल में सब लोग उनके दर्शनार्थ आये परंतु राजकुमारी यशोधरा उनमें नहीं थी । अपनी तपस्या पर राजकुमारी को पूर्ण विश्वास था कि स्वयं भगवान उन्हें दर्शन देने आयेंगे । अंत में यही हुआ। सारिपुत्र-मौद्गल्यायन को साथ ले भगवान यशोधरा के महल गये । भगवान यशोधरा की भावनाओं को जानते थे. इसी कारण उन्हों ने दोनों प्रधान शिष्यों को कहा कि यशोधरा जिस प्रकार भी दर्शन करना चाहे करने दे, उसे न रोकें ।
 

कई अवसरों पर भगवान ने सारिपुत्र - मौद्गल्यायन की मुक्त कंठ से  प्रशंसा की और भिक्षुओं को उनका अनुकरण करने का आदेश दिया । भगवान प्रतिपादन करते है-"भिक्षुओं सारिपुत्र मौद्गल्यायन का अनुकरण करो, उनको सहयोग दो। वे पण्डित हैं। अपने सहब्रह्मचारियों पर अनुग्रह करने वाले हैं । भिक्षुओं सारिपुत्र जननी के समान है तो मौद्गल्यायन दाई (नर्स)  के समान । भिक्षुओं सारिपुत्र चार आर्य सत्यों को विस्तारपूर्वक समझा सकते हैं। उन्हें स्पष्ट करके सामने खोल कर रख सकते हैं ।" यह कह भगवान वहाँ से उठ चले गये ।

भगवान के कथन का तात्पर्य जान सारिपुत्र उपस्थित भिक्षुओं को उपदेश देने लगे । सर्व प्रथम भगवान ने सारनाथ में जो धर्मोपदेश दिया था उसे ही सारिपुत्र ने सरल शब्दों में समझाया । दुःख क्या है ? उस से मुक्ति किस प्रकार संभव है ? इस प्रकार उन्होंने संपूर्ण आर्यसत्य और आर्यअष्टांग मार्ग का उपदेश दिया । 

एक बार भगवान गोसिंगशाल वन में विहार करते थे। उनके साथ उनके प्रधान शिष्य भी थे, जैसे सारिपुत्र-मौद्गल्यायन, महाकाश्यप, अनुरुद्ध, रेवत, आनंद आदि । आनंद भगवान के उपस्थायक थे । इसी कारण हमेशा छाया की तरह भगवान के आस पास ही रहा करते थे । बनखण्ड के विशालत्व के कारण अन्य भिक्षु वही पृथक पृथक विहार करते थे । महामौद्गल्यायन महाकाश्यप के पास जा कर बोले, आयुष्मान् आओ, धर्मं श्रवण के लिये आयुष्मान् सारिपुत्र के पास चलें । "

'आयुष्मान् ठीक है चलो ।" महाकाश्यप ने उत्तर दिया ।  
     
आयुष्मान् अनुरुद्ध को भी साथ ले वे सारिपुत्र के पास गये । यह जान कर आनंद आयुष्मान् रेवत के पास पहुंच कर बोले, “आयुष्मान् रेवत, सत्पुरुष धर्मश्रवणार्थ आयुष्मान् सारिपुत्र के पास पधारे हैं । "आओ हम भी चलें ।”

“हां आवुस चलो ।” रेवत ने उत्तर दिया। दोनों सारिपुत्र के पास गये । दोनों को आते देख सारिपुत्र ने कहा, " आओ आयुष्मान् आनंद ! भगवान के उपस्थायक, भगवान के साथ विचरण करने वाले आयुष्मान् आनंद का
स्वागत है ।"
   
'आयुष्मान् आनंद चांदनी सुंदर है, गोसिंगशालवन बहुत सुंदर लग रहा है । सारे शाल वृक्ष प्रफुल्लित हैं मानों दिव्य सुगंधित हवा बह रही हो । आनंद किस प्रकार के भिक्षु के कारण यह गोसिंगशालवन सुशोभित हो रहा है ?"

आयुष्मान् आनंद ने उत्तर दिया, "जो बहुश्रुत हैं, जो सूत्रों को धारण करने वाला है, जो सूत्रों का संचय करने वाला है, जिस ने धर्म को अच्छी तरह जान लिया है, इसी प्रकार के भिक्षु के कारण यह गोसिंगशालबन शोभायमान
है ।" उनका संकेत स्वयं सारिपुत्र की ओर था ।

"सारिपुत्र ने वही प्रश्न आयुष्मान् रेवत से पूछा । उन का मत था, “ जो शून्यावास-प्रेमी है, जो विपस्सना भावना से समन्वित हैं, इस प्रकार के भिक्षु से यह वन शोभा दे रहा है :" उनका संकेत महाकाश्यप की ओर था ।

आयुष्मान् अनुरुद्ध का विचार था, “जो भिक्षु विशुद्ध दिव्य चक्षु से मनुष्य लोक को पार कर सहस्र लोक को देखता है, इस प्रकार के भिक्षु के कारण इस वन की शोभा बढ रही है ।" यह संकेत महामौद्गल्यायन पर था ।

आयुष्मान् महाकाश्यप के विचार से, " जो भिक्षु स्वयं अरन्यवासी हो और उसका प्रशंसक भी हो, भिक्षाचारी हो उसका प्रशंसक हो, पांसुकुलिक हो और उसका प्रशंसक हो, त्रिचीवरधारी हो कर उसका प्रशंसक हो, अल्पेच्छिक हो उसका प्रशंसक हो, शील संपन्न, समाधि संपन्न, प्रज्ञावान, विमुक्ति युक्त हो, ऐसे भिक्षु से यह वन सुशोभित है ।"

महामौद्गल्यायन बोले, " जो भिक्षु अभिधर्म (अभिधम्म) की चर्चा करते हैं, एक दूसरे से प्रश्न पूछते हैं.......  इस प्रकार के भिक्षु से यह वन शोभायमान है ।"

अन्त में प्रश्न कर्ता सारिपुत्र बोले, " जो भिक्षु चित्त को वस में किये रहता है न कि स्वयं चित्त के वस में.... इस प्रकार के भिक्षु से यह वन शोभा देता है ।" 

सारिपुत्र ने पुन: कहा, "आयुष्मानो हमने अपनी अपनी बुद्धि के अनुसार व्याख्या की है । अब हम भगवान के पास चले । भगवान जो व्याख्या करेंगे उसी को स्वीकार करेंगे ।"

भगवान के पास पहुंच सारिपुत्र ने भगवान को सबकी व्याख्या सुनाई तथा महामौद्गल्यायन ने सारिपुत्र की व्याख्या सुनाई । भगवान ने साधुवाद दे कर कहा, “ सभी ने यथार्थ व्याख्या की है । जो जिन गुणों से युक्त है उसने वैसी
ही व्याख्या की है ।" सारिपुत्र ने कहा “ भन्ते सुभासित क्या है ?"

सारिपुत्र पर्याय से सभी सुभासित हैं: फिर भी मैं सुनाता हूँ कि किस प्रकार के भिक्षु से गोसिंगशालवन सुशोभित है । जो भिक्षु भोजनोपरांत पालथी मार कर शरीर को सीधे  किये चेहरे पर स्मृति उपस्थित कर बैठता है और
निश्चय करता है, " मैं तब तक नहीं उठूंगा जब तक मैं आश्रवों को चित्त से न निकाल दूंगा।' " सारिपुत्र इस प्रकार के भिक्षु से गोंसिंगशालवन की शोभा बढ़ती है।" सभी ने भगवान का अभिनंदन किया। "

एक समय भिक्षु, भिक्षुणियों की सभा में भगवान ने सारिपुत्र के बारे में कहा था, " भिक्षुओं तथागत सर्वश्रेष्ठ है- ( एतदग्गं यहापञ्जानं) । तथागत के बाद सारिपुत्र सर्वश्रेष्ठ ज्ञानी है ।

भगवान कभी कभी केवल शीर्षक सुझा कर सभा से उठ जाते और  सारिपुत्र उस विषय पर विस्तार से गंभीरता पूर्वक उपदेश देते । बाद में भगवान उसकी बड़ी प्रशंसा करते । एक स्थान पर भगवान सारिपुत्र की भूरी भूरी
"प्रशंसा करते दिखाई देते है । जब सेल ने भगवान से प्रश्न किया था कि उनका सेनापति कौन है । उस प्रश्न पर भगवान का उत्तर है,'मेरे धर्मसेनापति सारिपुत्र है जो धर्म के अनुप्रवर्तक है ।' भगवान और कहते हैं, " सारिपुत्र तुम ज्ञानी हो। तुम्हारा ज्ञान प्रकट एवं व्यापक है, वेगवान उल्लास पूर्ण तेज और दुराराध्य है । जैसे चक्रवर्ती राजा का ज्येष्ठ पुत्र अपने पिता के समान चक्र घुमाता है उसी प्रकार तुमने भी ठीक ढंग से धर्मचक्र घुमाया, जैसे कि मैंने
धर्मचक्र प्रवर्तित किया । इस तरह सारिपुत्र धर्मसेनापति के पद से विभूषित हुये, जैसे आनंद धर्मभाण्डागारिक ।
 
सारिपुत्र श्रावस्ती में भगवान की उपस्थिति में हाथी के पैरों की उपमा दे कर चार आर्यसत्यों को समझाते हैं।  "आयुष्मानों जितने भी जंगम प्राणी हैं उनके पैर हाथी के पैरों में समा जाते हैं क्यों कि सब प्राणियों के पैरों में
हाथी के पैर अग्र हैं । उसी प्रकार जितने भी कुशल धर्म हैं वे सब चार आर्यसत्यों में समा जाते हैं । उसी के अंतर्गत आते हैं "।

"भगवान अनाथपिण्डिक के जेतवनाराम श्रावस्ती में विहार करते थे । वहाँ भिक्षुओं को उपदेश दे भगवान ने सारिपुत्र का उदाहरण दे कर परिपूर्ण शिष्य के लक्षण बताये । उन्होंने कहा, “भिक्षुओं सारिपुत्र पण्डित है, महाप्रज्ञावान है, तीक्ष्ण ज्ञान युक्त है, बींधने वाली प्रज्ञासंपन्न है, भिक्षुओं सारिपुत्र की तरह तथागत के औरस पुत्र, धर्मध्वज, धर्म निर्माण करने वाले, धर्म दायाद बनो आमिसदायाद मत बनो । भिक्षुओं सारिपुत्र ने तथागत द्वारा अनुत्तर धर्मचक्र प्रवर्तन का सम्यक रूप से अनुप्रवर्तन किया है !

सारिपुत्र एक जगह कहते हैं कि व्यक्ति को हृदय की भावना में नहीं बहना चाहिए । हमेशा हृदय को काबू में रखना चाहिए, न कि हृदय के काबू में ।
 
हमेशा सारिपुत्र को भगवान की प्रशंसा ही नहीं मिली। उन्हें भगवान की फटकार भी खानी पड़ी। आवश्यकता पड़ने पर भगवान किसी को फटकारने में आगा पीछा नहीं देखते थे । भगवान की ही आज्ञा पर सारिपुत्र ने राहुल को प्रव्रजित किया था। एक बार सारिपुत्र राहुल का ठीक ठीक ख्याल नहीं कर सकें। सोने का स्थान न मिलने के कारण राहुल को भगवान के पाखाने में रात बितानी पड़ी। 

"इसी पर भगवान ने उन्हें दो टुक सुनाई थी ।

छ: वर्गीय भिक्षु बड़े कुआख्यात थे । वे हर जगह सबसे पहले ही पहुंच विहार की शय्याओं पर अधिकार कर लेते थे। केवल अपने लिये ही नहीं बल्कि अपने आचार्यों उपाध्यायों के लिये जगह घेर लेते । एक बार उन्होंने ऐसा ही किया। उस दिन सारिपुत्र शय्या के अभाव से बाहर ही किसी वृक्ष के नीचे सारी रात बैठे रहें । रात के मिनसार में उठकर भगवान ने खांसा तो सारिपुत्र ने भी खांसा ।

"वहाँ कौन हैं ?" भगवान ने पूछा ।"

"भगवान में सारिपुत्र हूँ।" 
"सारिपुत्र ! तुम यहाँ क्यों बैठे हो ?"

उन्होंने भगवान से सारी बात सुना दी। भगवान ने भिक्षुओं को संबोधित किया"

'भिक्षुओं ! क्या छ: वर्गीय भिक्षु आगे आगे जा कर विहार के कमरों और शय्याओं पर अधिकार कर लेते हैं ?

' सचमुच भगवान ! 'भिक्षुओं ने उत्तर दिया ।

भगवान ने उन्हें धिक्कारते हुये कहा, " कैसे हैं ये नालायक भिक्षु, जो ऐसा करते हैं ? भिक्षुओं तुम्हें मालूम होना चाहिये कि प्रथम आसन, प्रथम जल, प्रथम परोसा किसके लिये है ?"

किसी ने क्षत्रिय कुल से प्रव्रजित के लिये कहा । किसी ने ब्राह्मण कुल से प्रव्रजित के लिये बताया तो किसी ने गृहपति कुल से प्रव्रजित का नाम बताया। किसी ने सूत्रधर, विनयधर और धर्मकथिक के नाम का उल्लेख किया।

उपदेश देकर भगवान ने समझाया- " भिक्षुओं संघ में जो पहले प्रविष्ट हुआ है, चाहे वह किसी भी कुल का क्यों न हो वह ज्येष्ठ है । जो पीछे प्रव्रजित हुआ है, वह कनिष्ठ है । इसी नियम के अनुसार आदर सत्कार अभिवादन, प्रथम
आसन, प्रथम जल, प्रथम परोसा प्राप्त होना चाहिए ।"

भगवान के बाद सारिपुत्र महान् ज्ञानी माने जाते हैं फिर भी उनमें जरा भी अहंकार नहीं था । उन पर किसी का थोड़ा भी उपकार हो वे उसे भूलते नहीं थे । प्रति उपकारके लिये तत्पर रहते । राध नाम का एक ब्राह्मण प्रव्रज्या के लिये अत्यंत उत्सुक था । उसने भिक्षुओं से प्रब्रज्या की याचना भी की । किसी कारण किसीने भी उसे प्रब्रजित नहीं किया। प्रब्रज्या न पा वह दुखी था और दुर्बल हो गया था। भगवान ने उसे देख भिक्षुओं से इसका कारण पूछा । भिक्षुओं ने भगवान को उत्तर दिया- “ भन्ते ! प्रब्रज्या न मिलने से यह सूखकर पीला पड़ गया है।"

महाकारुणिक भगवान ने कहा, "भिक्षुओं तुम में से किसी को इस ब्राह्मण का कोई उपकार स्मरण है ?"
सब चुप रहे । तब सारिपुत्र बोले, "भन्ते ! मैं इस ब्राह्मण का उपकार स्मरण करता हूँ ।"

"सारिपुत्र ! तुम इस ब्राम्हण का कौन सा उपकार स्मरण करते हो ?'

"भन्ते एक समय में राजगृह में भिक्षाटन कर रहा था। इस ने मुझे कलछी भर भात दिलवाया था ।" "साघु, साधु, सारिपुत्र सत्पुरुष कृतज्ञ कृतवेदी होते हैं। अच्छा तो सारिपुत्र तुम ही इस ब्राह्मण को प्रब्रजित और उपसंपादित करो।" सारिपुत्र ने भगवान की आज्ञा का पालन किया । 

भगवान के धर्म में दीक्षित होने के पूर्व शुरुके दिनो में उन पर संजय परिव्राजक का बड़ा उपकार हुआ था। उस उपकार से मुक्त होने के लिये उन्होंने संजय को भगवान के धर्म में लाने का बहुत प्रयत्न किया था । 

सारिपुत्र अश्वजित को बहुत मानते थे । एक प्रकारसे अश्वजित ही उनको मार्ग दिखाने वाले थे । सारिपुत्र उन्हें अपना द्वितीय गुरु मानते थे । जहाँ कहीं भी सारिपुत्र विहार करते हो ओर उन्हें ज्ञान हो कि अश्वजित अमुक दिशा में विहार करते हैं तो वे सोने से पहले हर रात उस दिशा को नमस्कार करते" और उस दिशा में पैर कर के कभी नहीं सोते । यदि वे उसी विहार में निवास करते हो जहाँ सारिपुत्र ठहरे हैं तो भगवान से मिलने के बाद अश्वजित से बिना मिले नहीं सोते । 

सुख सारिपुत्र के दाई का पुत्र था। वह सात वर्ष की उम्र में ही सारिपुत्र के पास प्रब्रजित हो गया था। एक दिन वह सारिपुत्र के साथ उनके पीछे पीछे भिक्षाटनार्थ जा रहा था । रास्ते में कई प्रकार की चीजे देख उसने उनके
संबंध में सारिपुत्र से प्रश्न किये। इसके बाद उसने विहार लौट जाने की इच्छा प्रकट की । सारिपुत्र सहमत हुये । विहार लौटते वक्त उसने कहा, "भन्ते मेरे लिये स्वादीस्ट भोजन लाना । यदि अपने पुन्य प्रताप से न पा सके तो मेरे पुन्य प्रतापसे आप उसे पा सकेंगे ।

"श्रामणेर विहार पहुंच  शरीर की असारता पर ध्यान लगा चिन्तन करने बैठा । कुछ समय में वह अनागामी पद को प्राप्त हुआ । इस बीच सारिपुत्र, जहाँ सुख की इच्छानुसार भोजन मिल सकता था वहाँ पधारे। स्वयं भोजन करके सुख का हिस्सा ले वे विहार लौटे । 

"अन्य गुणों के साथ साथ दूसरों की सलाह मानने का गुण भी सारिपुत्र में था । सलाहकार चाहे छोटा ही क्यों न हो पर वे उसकी बात अवश्य सुनते।

एक बार उन्होंने लापरवाई से अपना चीवर कन्धे से नीचे फिसलने दिया । यह देख एक श्रामणेर ने कहा, "भन्ते! चीवर को ठीक से पहनना अच्छा है ।"

"सारिपुत्र ने स्वीकारते हुये कहा, 'तुमने बहुत अच्छा किया जो मुझे इसका ध्यान दिलाया ।" कुछ दूर जाकर उन्होंने चीवर को संवारा।

समय समय पर वे अपने सहधर्मियों से धर्म के संबंध में प्रश्न पूछते तथा वे भी सारिपुत्र की सलाह लेते । महाकोट्ठितने उनसे धर्म के संबंध में प्रश्न पूछे थे । " इसी प्रकार विद्या और अविद्या एवं मनोविज्ञान के विषय पर सारिपुत्र ने उसे विस्तार पूर्वक उपदेश दिया।

महाकाश्यप और अनुरुद्ध भी उनसे यदा कदा चर्चा करते दिखाई देते । एक जगह अनुरुद्ध उनसे अपनी हजारों दिव्य शक्तियों के बारे में कहते दिखाई देते हैं । सारिपुत्र उनसे कहते हैं कि उनकी दिव्य-दृष्टि केवल काल्पनिक है और दिव्य शक्तिवाला बताना अहंकार मात्र है । अनुरुद्ध सारिपुत्र की बात मानते हैं और अहंकार रहित हो अर्हत् पद को प्राप्त करते हैं ।

एक अन्य अवसर पर महामौद्गल्यायन उनसे अकलंक व्यक्ति के बारे में प्रश्न पूछते हैं । इसका उत्तर वे भिक्षु परिषद में सुनाते है, " चार प्रकार के मनुष्य होते हैं, १ वे जो दोष होने पर भी नहीं जानते कि वे सदोष है, २ वे जो सदोष होते हुये जानते हैं कि वे सदोष हैं, ३ वे जो अदोष हुये भी नहीं जानते है कि वे अदोष हैं, ४ वे जो अदोष होते हुये जानते है कि वे अदोष हैं ।

"एक बार सारिपुत्र ने राजगृह में भिक्षुओं के बीच एक अशिष्ट भिक्षु को देखा जो जंगली इलाके से आया था । वे कहते हैं, आयुष्मानों संघ में विचरते समय आरन्यक भिक्षु को चाहिये कि वह अपने सहब्रम्हचारियों के प्रति आदर और गौरव का व्यवहार करें, योग्य आसन पर बैठे, भिक्षाटन के समय योग्य विनय का ध्यान रखें तथा धर्म-विनय का अभ्यास करते हुये अपने साध्य का ख्याल रखें । किन्तु वे इन बातों का ख्याल नहीं करते ।" उनकी बात समाप्त होने पर महामौद्गल्यायन ने उनसे पूछा, इन नियमों का पालन करना चाहिये या ग्रामों निगमों में रहने वाले भिक्षुओंक्या आरन्यवासी भिक्षुओं को ही इन नियमों का ध्यान रखना चाहिये ?" 

"केवल आरन्यक भिक्षु ही नहीं बल्कि ग्राम निगमों में रहने वाले भिक्षुओं द्वारा भी इन नियमों की योग्य प्रकार से रक्षा की जानी चाहिये। " सारिपुत्र ने उत्तर दिया ।

सारिपुत्र उपदान से बौध्यांग के विषय पर प्रश्न करते हैं । अन्यत्र आनंद सारिपुत्र से यह जानने का प्रयत्न करते हैं कि गतिमान ज्ञान क्या है ? भिक्षुओं को नया दर्शन किस प्रकार सीखना चाहिये और पुराना दर्शन कैसे मिटाना
चाहिये । इनके उत्तर में वे आनंद से प्रश्न पूछ उत्तर देते हैं जिससे वे सारिपुत्र की बड़ी प्रशंसा करते हैं ।

पूर्ण मंत्राणि पुत्र, ज्ञानी कौण्डिन्य का भानजा था । उसकी ख्याति दूर दूर तक फैली हुई थी। इस विषय में सारिपुत्र ने भगवान से जानना चाहा । उन्होंने खास तौर पर कह रखा था कि पूर्ण श्रावस्ती आने पर उन्हें सूचित किया
जाये । पूर्ण के आने पर सारिपुत्र उससे मिलने गये । अंधवन में सारिपुत्र ने पूर्ण से प्रश्न पूछे -

"आयुष्मान् क्या भगवान के अधिन रह ब्रम्हचर्य का पालन किया जाता है ?" 

" हाँ  आयुष्मान् ।"

"आयुष्मान किस लिये भगवान के अधिन ब्रम्हचर्य का पालन किया जाता है । क्या शील विशुद्धि के लिये ? "

"नहीं आयुष्मान्।"

"तो क्या चित्त विशुद्धि के लिये ? "
"आयुष्मान् नहीं।"

"तो दृष्टि विशुद्धि के लिये ? "
" उसके लिये भी नहीं । "

"'तो क्या फिर शंका समाधान करने के लिये ? "
"नहीं आयुष्मान् ।

"तो क्या मार्ग और दर्शन के लिये ? "
"इस के लिये भी नहीं ।"

तो क्या प्रतिपदा-ज्ञान-दर्शन के लिये ? "

"नहीं आयुष्मान् । ”

"तो क्या ज्ञान दर्शन विशुद्धि के लिये ?"
"नहीं।"

"तो फिर किसके लिये भगवान के अधिन ब्रम्हचर्य का पालन किया जाता है ?"

"आयुष्मान, अनुपादनिर्वाण के लिये भगवान के समीप ब्रम्हचर्य का पालन किया जाता है।"

"पूर्ण के उत्तर से संतुष्ट हो सारिपुत्र पुनः अनुपादनिर्वाण के संबंध में जिस प्रकार प्रश्न करते हैं, पूर्ण भी उसी प्रकार उत्तर देते हैं एवं अंत में रथ की उपमा से स्पष्ट करते हैं।"

चर्चा अनंतर सारिपुत्र पूछते हैं - "आयुष्मान का नाम क्या है और आपके सब्रह्मचारी आपको किस नाम से पहचानते हैं ?"

"आयुष्मान् मेरा नाम पूर्ण हैं और मेरे सब्रह्मचारी मुझे मैत्राणि पुत्र के नाम से जानते हैं।"

सारिपुत्र पूर्ण से बहुत खुश हुये। उन्हों ने बड़ी प्रशंसा की। जब पूर्ण को यह पता चला कि उनसे प्रश्न पूछने वाले स्वयं धर्मसेनापति सारिपुत्र हैं तब पूर्ण ने उनसे क्षमा मांगी-" में नहीं जानता था कि स्वयं धर्मसेनापति से बात कर
रहा हूँ नहीं तो इतनी धिटाई के साथ बात नहीं करता ।" पूर्ण भी धर्मसेनापति से बहुत प्रसन्न हुये ।

पूर्ण धर्मकथिकों में सर्वश्रेष्ठ माने जाते थे " और ज्ञानी भी थे, फिर धर्मसेनापति से हर दृष्टि से छोटे थे । अपना परिचय दिये बिना ही सारिपुत्र उनसे सामान्य जिज्ञासु की तरह प्रश्न पूछते रहें। यह उनकी महानता थी ।

जिन भिक्षुओं ने सारिपुत्र से विशेष अवसर पर, समय समय चर्चा की और सलाह की, उनमें समिद्धि, यमक ", चण्डिकापुत्र और कालुदायी भी थे । 

 उनसे केवल भिक्षु ही चर्चा करने नहीं आते किन्तु गृहस्थ एवं परिव्राजक भी चर्चा करने आते । गृहपतियों में अतुल, नकुलपिता, धानंजाना,  साकला प्रमुख माने जा सकते हैं । परिव्राजको में जंबुखादक, सामण्डक, और मसूर थे।  परिव्राजिकाओं में थी सच्चा, लीला, अववादका और बाद की भिक्षुणी " पटाचारा । कुण्डलकेसी को तो उन्होंने पराजित कर भिक्षुणी बनाया था । वह राजगृह के श्रेष्ठी की पुत्री थी । एक दिन पुरोहित पुत्र संतुक चोरी के अपराध में राजपुरुषों द्वारा वध करने ले जाया जा रहा था । कुण्डलकेसी ने उसे देखा। उसी समय उसे उससे प्रेम हो गया। वह उसके बिना जी नहीं सकती थी । उसने अपने पिता से याचना की । पुत्री के प्रेम ने पिता को द्रवित किया । किसी तरह उस चोर को छुडा पिता ने दोनों का विवाह कर दिया । कुछ दिन पश्चात वह पत्नी को पूजा के बहाने एक पर्वत पर ले गया। वहीं उसने जेवर उतरवाकर पत्नी को मारना चाहा । कुण्डलकेसी प्रत्योत्पन्नमति थी । वह रहस्य
को समझ गई । इस समय तक वह पति भक्ति से लदी हुई थी, पर अब उसकी बंदर की नारी जाग उठी । उसने कूटनीतिका सहारा लिया। मरने से पहले उसने पतिसे प्रदक्षिणा करने की याचना की। पति मान गया । सिर झुकाये
हाथ जोड़े वह पतिकी प्रदक्षिणा करने लगी। दो चक्कर और लगाने थे कि उसने पतिकी कमर पर जोरका धक्का दिया और दूसरे ही क्षण वह पर्वत की चोटी से नीचे गिरा । वह पिता के घर नहीं जा सकती थी। वह किसी आश्रम
में जा परिव्राजिका बन गयी ।

वह उपदेश करने ग्राम नगर घुमती । वह जहाँ भी जाती वहीं एक झण्डी गाड़ कहती कि जिसको उससे वाद करना हो वही इस झण्डी को उखाडे । एक दिन सारिपुत्र ने झण्डी देखी । बच्चों को कह कर उन्हों ने उखडवाया । जानकर कुण्डलकेसी बड़ी जमात को लेकर सारिपुत्र के पास जेतवन पहुंची। सारिपुत्र ने उससे प्रश्न पूछने को कहा। जबतक वह पूछती रही तबतक सारिपुत्र उत्तर देते रहे । उसके चुप होने पर उनकी बारी थी । सारिपुत्र ने पहला ही

सवाल किया-एकनाम की क्या वस्तु है ?

वह इस प्रश्नका उत्तर नहीं दे सकी। उसने हार मानी और सारिपुत्र के आदेश पर भगवान के पास गई। भगवान ने उपदेश दिया कि अर्थविहीन एक हजार गाथायें याद करने से अर्थ युक्त एक गाथा याद करना हितकर है। उससे
चित्तको शांति मिलती । वह अंत में प्रब्रजित हुई । 

सारिपुत्र ने भिक्षुओं को कई उपदेश दिये थे । " वे उपदेश बाद में भगवान के उपदेश के आधार पर सूत्र बने जिनमें दसुत्तर और सम्मीति सूत्र अधिक प्रसिद्ध है । 

एक समय भगवान गंधकुटी के " आंगण परिवेण में बिछे आसन पर विराजमान थे । उनके चारों ओर भिक्षु थे । भगवान ने उन्हें संबोधित किया। भिक्षुओं ! अब मैं वृद्ध, ५६ वर्ष का हो चला । अब स्थाई उपस्थाक की जरूरत है । पहले कई उपस्थाक आज्ञाकारी नहीं निकले थे ।

"सारिपुत्र ने कहा, “ भन्ते मैं भगवान की सेवा करूंगा ।"

भगवान बोले, "नहीं सारिपुत्र ! जिस दिशा में तुम जाते हो फिर उस दिशा में मेरी आवश्यकता नहीं रहती । तुम्हारे उपदेश तथागत के उपदेश केसमान है इस लिये सारिपुत्र मुझे तुम्हारी सेवा नहीं चाहिए ।"

यह कार्य आनंद ने स्वीकारा" यद्यपि सारिपुत्र सब भिक्षुओं से समान रूप से व्यवहार करते थे पर आनंद और मौद्गल्यायन से कुछ विशेष ही लगाव था । मौद्गल्यायन उनके बचपन के साथी थे। जिस प्रकार से वे भगवान की सेवा करना चाहते थे ठीक उसी प्रकार की सेवा आनंद कर रहे थे । इस कारण वे आनंद से विशेष लगाव रखते । आनंद भी उनका बड़ा आदर करते थे । यह भगवान द्वारा सारिपुत्र के संबंध में पूछे गये प्रश्न से विदित होता है। 
          
भगवान श्रावस्ती के जेतवनाराम में थे। आयुष्मान आनंद उनके पास जा अभिवादन कर एक ओर बैठ गये । उन्होंने आनंद से पूछा, "आनंद तुम्हे सारिपुत्र अच्छे लगते हैं ?"

आनंद बोले- “ भन्ते ! ऐसा कौन मूर्ख, दुष्टचित्त, मूढ़ है, जिसे सारिपुत्र अच्छे नहीं लगते ? भन्ते आयुष्मान् सारिपुत्र पण्डित है, महाप्रज्ञावान है... अल्पेच्छुक है, निर्विकल्प है, प्रयत्नशील है, वक्ता हैं । ऐसे सारिपुत्र, भन्ते किसे अच्छे नहीं लगते ? " 

"आनंद ऐसा ही है। जो कुछ तुमने कहा मैं उसका समर्थन करता हूँ ।” 

राहुल के प्रति भी सारिपुत्र को विशेष प्रेम था । वे सिद्धार्थ के 'पुत्र और स्वयं उनके शिष्य थे । उन्हीं ने राहुल को आनापानसति भावना का बड़े चाव से अभ्यास कराया था । 

वे राहुलमाता का भी विशेष ख्याल करते थे । वह एक बार पेट की बीमारी से पीडित थीं । राहुल ने सारिपुत्र से सलाह की । उन्हों ने राहुलमाता के लिये आमका रस प्राप्त किया । एक अन्य अवसर पर राहुलमाता के बीमार होने से सारिपुत्र ने उनके लिये राजा पसेनजित से घी मिश्रित चावल और लाल मछली प्राप्त की थी ।

वे अनाथपिण्डिक का भी ध्यान रखते थे। बाद में उनकी बीमारी की अवस्था में सारिपुत्र आनंद के साथ उन्हें देखने गये थे और उन्हे उपदेश दिया था । एक बार वे केवल चित्र गृहपति को देखने मच्छिकासंड गये थे ।

सारिपुत्र धम्म (धर्म) सेनापति होने के कारण संघ में एकता बनाये रखने की उन पर जबावदारी थी । एक बार देवदत्त संघ में फूट डालकर कुछ भिक्षुओं को फुसला ले गया था । सारिपुत्र मौद्गल्यायन के साथ वहाँ गये और उन्हे समझा कर लौटा लाये । 

एक बार भगवान कौशांबी के भिक्षुओं से असंतुष्ट हो श्रावस्ती चले गये । भगवान का कहना न मानने वाले भिक्षुओं का वहाँ के गृहपतियों ने बहिष्कार किया । तब सब भिक्षु अपना अपना आसन समेट पात्र चीवर ले भगवान से क्षमा मांगने श्रावस्ती गये । यह सारिपुत्र को ज्ञात हुआ तो वे भगवान के पास जा बोले, “ भन्ते ! कौशांबी के झगडालू भिक्षु, श्रावस्ती आ रहे हैं । मैं उनसे कैसे बरतू ?"

" सारिपुत्र अधर्मवादी के कुछ लक्षण हैं । वह धम्म  को अधर्म कहता है,
और अधर्म को धर्म; विनय को अविनय कहता है तथा अविनय को विनय; तथागत द्वारा भाषित को अभाषित कहता है एवं अभाषित को भाषित; सारिपुत्र तुम इन लक्षणों से पहचानो कि कौन धर्मवादी है और कौन अधर्मवादी ।" 


संघ में कुछ ऐसे भी भिक्षु थे जो सारिपुत्र से अप्रसन्न रहा करते थे । एक बार भगवान सारिपुत्र और मौद्गल्यायन सहित पांच सौं भिक्षुओं को लेकर श्रावस्ती से कीटागिरि " की ओर चल दिये । अश्वजित और पुनर्वसू ने मंत्रणा की-" आवुसो ! सारिपुत्र और मौद्गल्यायन की नियत अच्छी नहीं है। ये दोनों पापेच्छूक हैं। हमें चाहिये कि हम उन्हें शयनासन न दें। इसलिये आओ हम सब सांघिक वस्तुओं का बटवारा करें।" उन्होंने सांघिक संपत्ति आपस में बांट ली। भगवान के कीटागिरि पहुंचने पर अन्य भिक्षुओं ने उन्हें भगवान के आगमन की सूचना दी।

अश्वजित और पूणर्वसु ने कहा, “आवसो ! यहाँ सांघिक शयनासन नहीं हैं । हमने सभी वस्तुओं का बटवारा किया है। भगवान का स्वागत है । वे आये, चाहे जिस विहार में ठहरें । सारिपुत्र और मौद्गल्यायन पापेच्छूक हैं। हम उन्हें शयनासन नहीं देंगे ।
         
 " भिक्षुओं ने जाकर भगवान से कहा ।

भगवान ने धिक्कार कर उपदेश दिया, “भिक्षुओं पांच वस्तुएं अविभाज्य हैं । न उन्हें संघ ही बांट सकता है न व्यक्ति ही । जो उनका बटवारा करता है वह दोषी है। कौनसी पांच ? १.आराम या विहार वस्तु, २. विहार, ३. मंच, पीठ, गद्दा, तकिया. ४. लोह कुम्भ, ५. बल्ली, बांस मुंज आदि । "

भगवान द्वारा विज्ञापित नियमों का सारिपुत्र अक्षरशः पालन करने में कभी नहीं चुकते । कुछ समय बाद भगवान ने एक भिक्षु द्वारा एक ही श्रामणेर को दीक्षित करने का नियम बताया था । जिस परिवार का सारिपुत्र पर बड़ा उपकार हुआ था ऐसे परिवार से उनके पास एक पुत्र प्रव्रजित कराने भेजा गया । सारिपुत्र ने इनकार कर दिया। जब तक भगवान ने उस नियम कोन हीं बदला तब तक उन्हों ने उसे दीक्षा नहीं दी। इसी प्रकार भगवान ने ल्हसून न खाने का नियम बनाया था। जब सारिपुत्र बीमार पड़े तो उन्हों ने ल्हसून नहीं खाया जब कि वे जानते थे कि ल्हसून खाने से ही उनकी बीमारी दूर होती है । भगवान की अनुमति के पश्चात ही उन्हों ने ल्हसून खाया ।

अन्य गुणों के साथ साथ उनमें सेवाभाव भी एक बड़ा गुण था । एक बार वे एक बिहार में ठहरे हुये थे । वहाँ के सब भिक्षु भिक्षाटन के लिये चले गये । लौटने पर वे उन्हें दोष न दें इस कारण उन्हों ने सारे विहार की सफाई की, मटकों में पानी भरा और आसन बिछा कर रख दिये । इतना करने पर भी उन पर लालची होने का दोषारोपन किया गया था। भगवान ने समझाया कि सारिपुत्र निर्दोष है।

स्वयं भगवान रोगी भिक्षुओं को देखने जाया करते थे। उसी प्रकार रोगियों को देखने जाना और उनकी सेवा करना सारिपुत्र का नियम सा बन गया था । 

सारिपुत्र हमेशा किसी भिक्षु की सफलता पर प्रसन्न होते थे और उसे प्रकट करते थे । मौद्गल्यायन की ऋद्धि प्राप्ति पर प्रसन्न हो उनकी बड़ी प्रशंसा की थी । इसी प्रकार के अनेक उदाहरण पाये जाते हैं ।

किसी भी बात का निश्चय करने पर वे उसे अंत तक निभाते । उन्हें अपूप बहुत प्रिय थे । एक बार उन्हें भिक्षा में अपूप मिले। अपना हिस्सा ग्रहण कर अपने अंतेवासी का हिस्सा बचा रख छोड़ा। उसे आने में देर हो रही थी
और खाने का समय बीत रहा था तो उन्होंने बचे अपूप स्वयं ही खा लिये । अन्तेवासी के आनेपर उन्हों ने इस का जिक्र किया तो बिना सोचे श्रामणेर ने कह दिया, "भन्ते मीठा किसे अच्छा नहीं लगता ?" उस दिन से सारिपुत्र ने
अपूप खाना छोड़ दिया और उसे जीवनभर निभाया ।

कहा जाता हैं कि एक बार रात्रि के समय कोई यक्ष आकाश मार्ग से जा रहा था । सारिपुत्र का मुण्डन किया हुआ सिर देख कर यक्षको आश्चर्य हुआ । सारिपुत्र ध्यान लगाये बैठे थे । साथियों के मना करने पर भी उस यक्ष ने उनके
सिर पर प्रहार किया । माना जाता हैं कि वह प्रहार पर्वत को भी कंपन करने वाला था । किन्तु बाद में सारिपुत्र को थोड़ा सिर दर्द हुआ था ।

सारिपुत्र दो बार बीमार पड़े थे । एक मर्तबा उन्हें बुखार हो आया था । उसके लिये महामौद्गल्यायन मंदाकिनी सरोवर से कमल-णाल ले आये थे । दूसरे अवसर पर पेट का दर्द हुआ था । इस बार भी मौद्गल्यायन ने ही उन्हें
लहसून की दवा दी थी।

बेळवग्राम में अंतिम वर्षांवास बिता भगवान श्रावस्ती लौटे। वहीं अंतिम बार सारिपुत्र भगवान से मिलें । भगवान के प्रति उन में असीमित श्रद्धा थी । उसे उन्हों ने अपने सिंहनाद में व्यक्त किया है ।

सारिपुत्र जानते थे कि सात दिन के बाद उनका अवसान काल आने वाला है । अपनी माता से मिलने का उन्होंने निश्चय किया । यद्यपि वह सात अर्हतों की जननी थी तो भी वह भगवान के धर्म में विश्वास नहीं करती थी । इस का
कारण था उसके सारे पुत्र पुत्रियाँ विशाल धन राशी का त्याग कर प्रव्रजित हो गये थे। कहा जाता हैं कि पहले एक बार जब सारिपुत्र गांव गये तो उनकी माता ने उन्हें और उनके साथियों को खूब गाली दी थी तब राहुल भी उनके साथ थे ।

नाळकग्राम की यात्रा की तैयारी करने उन्हों ने अपने भाई चुन्द से कहा । सारिपुत्र ने हमेशा के लिये भगवान से विदा ली । श्रावस्ती के महाद्वार तक विशाल जनकाय उन्हें विदा करने गया । वहाँ सारिपुत्र ने उन्हें उपदेश दिया
और वहीं से लौट जाने का अनुरोध किया ।

इस यात्रा में उनके साथ पांच सौं भिक्षु थे । सातवें दिन वे नाळकग्राम पहुंचे। ग्राम द्वार पर उनका भानजा भिक्षु उपरेवत प्रतीक्षा कर रहा था। सारिपुत्र ने यह कह कर उसे माता के पास भेजा कि सारिपुत्र बड़ी जमात के
गृहस्थ जीवन स्वीकार करने आया सोच उनके साथ आये हैं । पुत्र अंत में साथियों की हर प्रकार की व्यवस्था की। जिस कमरे में सारिपुत्र का जन्म हुआ था वे वहीं ठहरे। वे वहीं बीमारी से पीड़ित हुये । माता बीमारी से अनभिज्ञ थी । उसे इस बात का गुस्सा था कि उसका पुत्र अभी भी चीवर धारी ही है । वह अपने कमरे में रही । जब उसने देखा कि उसके इष्ट देवता उसके पुत्र की सेवा में उपस्थित हुये हैं तो वह सारिपुत्र के पास गई और पूछा कि क्या सचमूच वह उन देवताओं से श्रेष्ठ है ? सारिपुत्र के स्वीकार करने पर वह खुशी से फुली न समाई। उन्होंने माता को उपदेश दिया जिससे वह श्रोतापन हो गई ।

सारिपुत्र ने अनुभव किया कि वे माता के ऋण से मुक्त हुये । भिक्षुओं को बुला लाने के लिये उन्हों ने चन्द को भेजा । भिक्षुओं के आने पर वे चुन्द की मदद से तकिये के सहारे बैठ गये । उन्हों ने विनम्र हो पूछा- " आयुष्मानों मेरे
भिक्षु जीवन के चौवालीस वर्षों में मैंने किसी प्रकार आयुष्मानों के प्रति अन्याय तो नहीं किया ? आयुष्मानों को अप्रसन्न तो नहीं किया ?” उन भिक्षुओं का उत्तर सुन उन्हें संतोष एवं विश्वास हुआ कि वे हर प्रकार से निर्दोष हैं । वे
आराम से लेट गये और कई प्रकार की समाधियों में से गुजर कर अंतिम श्वांस ली। वे परिनिर्वाण को प्राप्त हुये ।

उनकी माता ने दाहसंस्कार की सारी तैयारी कराई । दाहसंस्कार के उपरांत अनुरुद्ध स्थविर ने सुगंधित जल से चिता को शान्त किया और चन्द ने सारिपुत्र के शरीर के भस्मावशेष इकट्ठे किये । 

सारिपुत्र का देहांत कार्तिकी पूर्णिमा के दिन हुआ था । इसके दो सप्ताह बाद महामौद्गल्यायन भी महापरिनिर्वाण को प्राप्त हुये थे। सारिपुत्र मौद्गल्यायन दोनों उम्र में भगवान से बड़े थे। "

सारिपुत्र की अस्ति और पात्र चीवर लेकर चुन्द श्रावस्ती गये । सबसे पहले उन्हों ने आनंद को सारिपुत्र के देहावसान का समाचार दिया। सुन कर आनंद को बहुत ही दुःख हुआ। "दोनों भगवान के पास गये । समाचार सुन भगवान ने वस्तुओं के अनित्यता धर्म का उपदेश दिया ।

सारिपुत्र के कई शिष्य थे जिन में कुछ का उल्लेख आ चुका है । अन्य शिष्य थे-कोसिय, कंधदिन्न, चुल्लसारि, वनवासिक तिष्य, संकिच्च और सरभू । सारिपुत्र धर्म के विशेषज्ञ माने जाते थे। उन्हों ने इस विषय में पांच सौं भिक्षुओं को तैयार किया था। इस प्रकार सारीपुत्त ने ही अभिधम्म की परंपरा चली आई है।

बौद्ध भिक्षु सारिपुत्त के  जीवन का सार: 

जब पहली बार सारिपुत्त और मौद्गल्यायन को देखा था तब ही भगवा बुद्ध ने उनकी विद्वता पहचान ली थी, इन्हें  देखते ही भगवान ने उन्हें पहचान लिया और भिक्षुओं से कहा, " ये दोनों मेरे अग्रश्रावक होंगे ।" जौहरी जैसे रत्न को देखते ही उसका मूल्य पहचान लेता है । कुशल वैद्य  बीमार व्यक्ति को देखने मात्र से रोग का निदान लगा लेता है ।
  
सारिपुत्र ने जिन आचार्यों से सीखा है उनके प्रति सम्मान करना और अपने से बड़े भिक्खुओं के प्रति सद्धम भावना रखते हैं, भगवा बुद्ध सारिपुत की धम्म के प्रति अनुशासन व सद्भावना जानते थे । एक बार जब भगवान बुद्ध गोसिंगशालवन में ठहरे हुए थे तब भिक्षुओं से कहा था कि तथागत के बाद सारिपुत्र सर्वश्रेष्ठ ज्ञानी है । 

नालन्दा महाविहार यूनेस्को का विश्व धरोहर स्थल है। यह नालंदा में सबसे महत्वपूर्ण स्मारक है और इसकी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत के प्रमाण के रूप में खड़ा है। बुद्ध के बताएं धम्म नक्शेकदम पर चलकर निर्वाण प्राप्त करने में काबिल होने के बाद सारिपुत्र एक इतिहास में प्रसिद्ध अर्हत बन गए।

सारिपुत्र का देहांत कार्तिकी पूर्णिमा के दिन हुआ था । इसके दो सप्ताह बाद महामौद्गल्यायन भी परिनिर्वाण को प्राप्त हुये थे। सारिपुत- मौद्गल्यायन दोनों उम्र में भगवान से बड़े थे। सारिपुत्र के गांव का नाम नाळकग्राम था " धम्म सेनापति सारिपुत्र की याद में सम्राट अशोक ने नालंदा (नाळकग्राम के नाम पर संभवतया) बुद्ध धम्म शिक्षा का केंद्र महाविहार/विश्वविद्यालय का निर्माण करवाया और इसी महाविहार में सारिपुत्त का चैत्य बनवाया था। जो आज भी विद्यमान है। 

इन्हें भी देखें

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