3. सेरिवाणिज्य जातक कथा : SERIVANIJA-JATAKA KATHA
सेरिवाणिज्य जातक कथा: SERIVANIJA-JATAKA KATHA
"सेरिवाणिज्य जातक कथा", यह जातक कथा तथागत ने श्रीवस्ती में विहरते हुए एक भिक्षु के बारे में कही थी जो आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने के अपने प्रयासों में हतोत्साहित था। ज्यादा तर कथाएं बुद्ध द्वारा किसी भिक्षु या उपासक को उपदेश या प्रवचन देने के लिए ही कहीं हैं, और धम्म की दृष्टि से भी जातक कथाओं का विशेष महत्व है। सेरिवाणिज्य जातक कथा, तिपिटक के खुद्दक निकाय का अंग है। जातक कथाओं की संख्या लगभग ५४७ मानी जाती है। जिसका उल्लेख कई विदेशी विद्वानों की लिखी पुस्तकों में देखने को मिलता है। सेरिवाणिज्य जातक कथा, जातक कथाओं के भाग १ के एक निपात की तीसरी कथा है।
बुद्ध के समकालीन समय की कथा: |
क्योंकि, जब पूर्व की भांति (वण्णुपथ जातक कथा की तरह) ही भिक्षुओं द्वारा उस भिक्षु को तथागत के सामने लाया गया, तो शास्ता ने कहा, “भिक्षु! तुम इस प्रकार के मार्ग-फल-दायक धम्म (बुद्ध के शासन) में भिक्षु होने के बाद तुमने प्रयास करना छोड़ दिया, तुम उसी सेरिवा व्यापारी (फेरीवाले) की तरह चिन्ता में पड़कर लम्बे समय तक दुःखी होगें, जैसे वह फेरीवाला एक लाख के मूल्य के स्वर्ण पात्र को खो कर द:खी हुआ।"
भिक्षुओं ने तथागत से उस बात को स्पष्ट करने की प्रार्थना की। तथागत ने वह पूर्व जन्म की अज्ञात कथा प्रकाशित की।
सेरिवाणिज्य जातक कथा: बुद्ध के अतीत काल में
बहुत समय पहले, वर्तमान समय से पांच कल्प पूर्व में बोधिसत्व सेरिवा नामक टिन और पीतल के बर्तनों के व्यापारी हो कर जन्म लिये। इस सेरिवा ने, एक अन्य टिन और पीतल के बर्तनों के व्यापारी के साथ, जो एक लालची व्यक्ति या, तेल-वाह नदी के पार, अन्धा-पुरा नामक शहर में प्रवेश किया। और उस शहर की सड़कों को बीच से दो भागों में बांट लिया, बोधिसत्व अपने भाग में सामान बेचने के लिये चले गये, जबकि दूसरा अपने भाग में।
अब उस शहर में एक धनी परिवार था जो अत्यंत गरीबी में डूबा हुआ था। परिवार के सभी पुत्रों और भाईयों की मृत्यु हो गई थी, और उनकी सम्पत्ति नष्ट हो गई थीं। केवल एक लड़की और उसकी दादी बचे थे; और वह दोनों दूसरों की मजदूरी करके अपना जीवन यापन किया करते थे, उनके घर में पहले धनी सेठ के समय उपयोग में आने वाले दूसरे बर्तनों में एक सोने कि थाली भी थी, जिसमें वह मुखिया अपनी समृद्धि के दिनों में भोजन करता था; लेकिन वह गंदगी से ढकी हुई थी, और लम्बे समय से बर्तनों और धूपदानों के बीच उपेक्षित और अप्रयुक्त पड़ी थी। जिससे उन्हें पता नहीं चला की यह सोने की है।
उसी समय वह लालची फेरीवाला, चलते-चलते, पुकारता हुआ, मेरे पानी के बर्तन लेलो! मेरे पानी के बर्तन लेलो! उनके घर के दरवाजे पर आ गया। जब लड़की ने देखा, तो उसने अपनी दादी से कहा, "माँ! मेरे लिए एक आभूषण खरीद दो। "
"लेकिन हम गरीब हैं, बेटी"! हम बदले में क्या देंगे ?
"हमारे पास यह थाली हमारे किसी काम की नहीं है, आप इसे देकर एक ले सकते हैं। "
बुढ़िया ने फेरीवाले को बुलाया और उसे बैठने के लिए कहकर थाली दी और बोली, "क्या तुम इसे लोगे महोदय, और इसके बदले में अपनी छोटी बहन को कुछ दे सकते हो?"
फेरीवाले ने बर्तन लिया और सोचा, "यह सोना होगा। " और उसे घुमाकर, सुई से उसकी पिछली सतह पर एक रेखा खींची, और पाया कि वैसा ही है। फिर उन्हें बिना कुछ दिए थाली मिल जाने की आशा से उसने कहा, इसका क्या मूल्य है ? इसका तो आधे पैसे का भी मूल्य नहीं है। " और उसे भूमि पर पटक कर अपनी जगह से उठकर चला गया।
अब किसी भी फेरीवाले को उस सड़क पर जाने की की अनुमति थी जिसे दूसरा छोड़ गया हो। और बोधिसत्त्व उस गली में आये, और चिल्लाते हुए, पानी के बर्तन खरीद लो," उसी घर के दरवाजे तक गए। और लड़की ने पहले की तरह अपनी दादी से बात की। लेकिन दादी ने कहा, "मेरी बच्ची, जो व्यापारी अभी आया था, वह इस बर्तन को फर्श पर फेंक कर चला गया; अब मेरे पास उसे बदले में देने को क्या है ?
“दादी ! वह व्यापारी धूर्त आदमी या; लेकिन यह सौम्य है, और इसकी आवाज मधुर है: शायद वह इसे ले सकता।"
फिर बुढ़िया ने कहा, “अच्छा तो बुला" ।
तो उसने उसे बुलाया। और जब वह भीतर आकर बैठा गया, तो उन्होंने उसे थाली दी। उसने देखा कि यह सोना है, और कहा, "माँ! यह थाली एक लाख की है! मेरे पास जो भी सामान है। वह इसके मूल्य के बराबर भी नहीं है !"
"लेकिन अभी-अभी एक फेरीवाला आया था, उसने इसे जमीन पर फेंक दिया और कहकर चला गया कि इसकी कीमत आधे पैसे की भी नहीं है। यह आपके पुण्य के बल पर सोने में बदल गई होगी, इसलिए हम इसे आपको उपहार के रूप में देते हैं। इसे ले लो, इसके बदले में हमें जो कुछ चाहो समान दे दो।"
बोधिसत्व ने उन्हें अपने हाथ में मौजूद सारी नकदी (पांच सौ रुपये या नोट) और अपने व्यापार का सारा सामान, जिसकी कीमत पांच सौ से अधिक थी, दे दिया। उसने उनसे केवल आठ पैसे (कार्षापण), तराजू और थैला जिसमें वह अपना सामान रखता था। और इन्हें लेकर वह चला गया।
और उसने शीघ्रता से नदी के किनारे जाकर एक नाविक को वे आठ पैसे दे दिए, और नाव पर चढ़ गया।
लेकिन वह लालची फेरीवाला घर वापस आया और बोला: "उस थाली को बाहर लाओं, मैं तुम्हें उसके बदले में कुछ देता हूँ।”
तब बुढ़िया ने उसे डाँटते हुए कहा, “तुने कहा था कि हमारी सोने की थाली, जिसकी कीमत एक लाख थी, आधे पैसे की भी नहीं है। परन्तु एक न्यायप्रिय व्यापारी ने, जो तेरा स्वामी प्रतीत होता है, हमें उसके बदले में एक हजार दे कर ले गया।"
जब उसने यह सुना तो वह चिल्लाया, "इस आदमी के कारण मैंने एक सोने का बर्तन खो दिया है, एक लाख के मूल्य का। उसने मुझे पूरी तरह बर्बाद कर दिया है! और द्वेषपूर्ण दुःख उस पर हावी हो गया, और वह अपनी मानसिक उपस्थिति को बनाए रखने में असमर्थ था; और उसके अपना सारा अत्मसंयम खो दिया। उसके पास जो धन था और जो सारा सामान था, उसे घर के द्वार पर बिखेर दिया, और अपने कपडे फाड़ डाले, तराजू को मुगरी बना, बोधिसत्त्व के पीछे भागा।
जब वह नदी के किनारे पंहुचा, तो उसने बोधिसत्त्व को दूर जाते देखा और चिल्लाया, "ओ मल्लाह! मल्लाह! नाव रोको !" लेकिन बोधिसत्त्व ने कहा, "मत रुको!" और इस तरह उसे रोक दिया। जैसे ही उसने दूर जा रहे बोधिसत्त्व को देखा, वह हिंसक दुःख से फट गया; जिससे उसका दिल गर्म हो गया, और उसके मुँह से खून बहता रहा जब तक उसका दिल गर्मी से सूखे कीचड़ की तरह फैट नहीं गया।
इस प्रकार बोधिसत्त्व के प्रति घृणा रखते हुए, उसने उसी स्थान पर अपना विनाश कर लिया। यहाँ पहले बार था कि देवदत्त के मन में बोधिसत्त्व के प्रति घृणा उत्पन्न हुयी। परन्तु बोधिसत्त्व ने दान आदि अन्य पुण्य कर्म करके अपने कर्मो के अनुसार गति को प्राप्त हुए।
बुद्ध ने यहाँ धम्मोपदेश दे, सम्बुद्ध होने की अवस्था में यह गाथा कही --
इध चेहि नं विराथेसि सद्धम्मस्स नियामतं।
चिरं त्वं अनुतपेस्ससि सेवि यं व वाणिज्यो।।
यदि तू सद्धर्म के नियम को नहीं प्राप्त करता,
तो तू सेरिवा बनिये की तरह दुःख को प्राप्त होगा।
सेरिवाणिज्य जातक कथा का सारांश:
इस प्रकार शास्ता जे अर्हत्व-प्राप्ति को सर्वोच्च स्थान दे, यह धम्म उपदेश कर चारों आर्य सत्यों को प्रकाशित किया। सत्यों की व्याख्या के अन्त में वह निराश भिक्षु अर्हत्व सर्वोत्तम फल में प्रतिष्ठित हुआ। बुद्ध ने दोनों कथाओं को सुना, कर, तथा दोनों का संबंध बता, जातक का सारांश निकाल दिया। उस समय का मूर्ख व्यापारी देवदत्त था; और बुद्धिमान व्यापारी तो मैं ही था।"
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