Bhikkhu Jagdish Kashyap: भिक्खु जगदीश कश्यप

भिक्खु जगदीश कश्यप

Bhikkhu Jagdish Kashyap

उनकी करुणामई बातों का सार नव नालंदा विश्वविद्यालय

यो हवे दहरो भिक्खु, युञ्ज ति बुद्धसासने।

सो इमं लोकं पभासेति, अब्भा मुत्तोव चन्दिमा॥ धम्मपद, 382

जब कोई तरुण युवावस्था में तथागत के शासन में संलग्न हो जाता है, तो वह इस संसार को वैसे ही प्रकाशित करता है जैसे बादलों से मुक्त हुआ चन्द्रमा प्रकाशित करता है। इस लेख के माध्यम से मैं आपको ऐसे ही एक महान् भिक्खु से परिचित करवाने जा रहा हूँ जिसने बीसवीं सदी में 26 साल की उम्र में ही प्रव्रज्या ग्रहण की; भगवान् बुद्ध की वाणी को मूल पालि भाषा में नागरी अक्षरों में लिप्यांतरण के साथ-साथ पालि से हिन्दी अनुवाद करने की महापंडित राहुल सांकृत्यायन और भदंत आनन्द कौसल्यायन की परम्परा को कदम से कदम मिलाकर आगे बढ़ाया; पालि का व्याकरण हिन्दी में तैयार किया; स्वतंत्र रूप से विभिन्न नवीन ग्रंथों की सृजना की; नव नालन्दा महाविहार जैसी उद्भट ज्ञान संस्था का निर्माण करवाया।


जी, हाँ मैं बात कर रहा हूँ भिक्खु जगदीस कस्सप (2 मई 1908 - 28 जनवरी 1976) की, जो वर्ष 1908 में आज ही के दिन (2 मई) को अविभाजित बिहार और वर्तमान झारखण्ड के रांची में जन्में थे। इनके पिता श्याम नारायण रांची कोर्ट में कर्मचारी थे, उन्होंने इनका नाम जगदीश नारायण रखा। आरम्भिक शिक्षा रांची में ही सम्पन्न हुई। पटना कॉलेज से 1929 में बी.ए. उत्तीर्ण करने के बाद बनारस विश्वविद्यालय से दर्शनशास्त्र (1931) और संस्कृत (1932) विषयों से एम.ए. किया।

बनारस में पढ़ते हुए जगदीश नारायण जी महापंडित राहुल सांकृत्यायन के संपर्क में आए। राहुल जी के द्वारा बौद्ध साहित्य के उद्धार के लिए किए जा रहे कार्यों के प्रति उनका हृदय बौद्ध धर्म की ओर उन्मुख होने लगा। जगदीश नारायण जी के मन में एक ही स्वप्न साकार हो रहा था कि कैसे भी करके वो पालि भाषा सीख जाएं ताकि धम्म की सेवा कर सकें।

इधर जगदीश जी के माता-पिता आम भारतीय माता-पिता की तरह ही अपनी सबसे बड़ी जिम्मेदारी उनके विवाह को करवाकर मुक्त होना चाहते थे। राहुल सांकृत्यायन जी के सम्पर्क में आने के बाद जगदीश जी जैसे-जैसे अध्ययन करते जा रहे थे, उनका मन संसार के स्थान पर ज्ञान सरिता में निरन्तर आगे बढ़ता जा रहा था। उनके पिता चाहते थे कि जगदीश नारायण जी विवाह करके गृहस्थ जीवन का आरम्भ करें, किन्तु जगदीश जी का मन सांसारिक भोगों से बहुत दूर शनैः - शनैः तथागत की वाणी में रम रहा था। उनके भीतर एक बोधिचित्त उत्पन्न हो चुका था जिसका लक्ष्य केवल और केवल तथागत की वाणी को जनभाषा में पुनः प्रचारित करना था और इसके लिए वे किसी भी प्रकार के बंधन में बंधने के लिए तैयार नहीं थे।

राहुल सांकृत्यायन जी और काशी प्रसाद जायसवाल जी के सहयोग से जगदीश नारायण जी श्रीलंका के विद्यालंकार पीरिवेण गए। विद्यालंकार पीरिवेण उस समय का पालि भाषा और त्रिपिटक अध्ययन का सबसे बड़ा केन्द्र था जो बाद में केलनिया विश्वविद्यालय का रूप ग्रहण किया। वहाँ उन्होंने भिक्खु धम्मानंद महाथेरो से पालि भाषा का गहराई से अध्ययन किया।

1934 में धम्म के प्रति उनकी निरन्तर गति ने उन्हें प्रव्रज्या की ओर प्रवृत्त किया। भिक्खु धम्मानंद महाथेर ने उनकी उपसंपदा करवाई। 1934 में जगदीश नारायण से उनका नाम भिक्खु जगदीस कस्सप हुआ और इस प्रकार भारत को आधुनिक युग का ऐसा भिक्खु मिला जो धम्मपद (364) की इस गाथा की विशेषताओं से समन्वित था-

धम्मारामो धम्मरतो, धम्मं अनुविचिन्तयं।
धम्मं अनुस्सरं भिक्खु, सद्धम्मा न परिहायति॥

अर्थात् भिक्खु धम्म में रमण करने वाला होना चाहिए, धम्म में रत रहने वाला होना चाहिए, धम्म का निरन्तर चिंतन करने वाला चाहिए, धम्म का अनुसरण करने वाला होना चाहिए, वह सद्धम्म को कभी भी छोड़ने वाला नहीं होना चाहिए। भिक्खु जगदीस कस्सप जी बहुत मृदु भाषी और विनम्र भिक्खु थे। बुद्ध, धम्म और संघ के पुनरुद्धार के लिए उनका चित्त पद्म-पंखुड़ियों की तरह खिलने लगा था।

विद्यालंकार पीरिवेण, श्रीलंका से उन्हें त्रिपिटकाचार्य की उपाधि प्राप्त हुई। भारत वापस आते ही जब वे राहुल सांकृत्यायन जी से मिले तो राहुल जी द्वारा लाई गई विभिन्न तिब्बती पांडुलिपियों को देखकर उनके मन में एक स्वप्न जागृत हुआ नालंदा विश्वविद्यालय की पुनर्स्थापना का ताकि नालन्दा को उसका गौरव पुनः लौटाया जा सके।

जगदीस कस्सप जी 1936 में राहुल सांकृत्यायन जी के साथ जापान की यात्रा पर निकले। भारत में गांधीजी के असहयोग आंदोलन में भाग लेने के कारण उन्हें रास्ते में ही मलेशिया के पेनांग शहर में रोक दिया गया और गिरफ्तार कर पेनांग की जेल में डाल दिया गया। यहाँ रहकर ही उन्होंने दीघनिकाय और मिलिन्दपञ्ह दोनों पालि ग्रंथों का हिन्दी अनुवाद किया जिसे राहुल जी के लिए प्रकाशनार्थ भारत भेज दिया। पेनांग में लगभग एक वर्ष के कारावास के दौरान उन्होंने चीनी भाषा सीख ली तथा यहीं से उनकी प्रसिद्धि एक बौद्ध विद्वान् के रूप में सर्वत्र होने लगी। 1937 में भारत वापस आने पर उन्होंने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग में पालि भाषा, दर्शन विभाग में बौद्ध तर्कशास्त्र पढ़ाना आरम्भ किया। धम्मानंद कोसाम्बी से उन्होंने अभिधम्म और विसुद्धिमग्ग जैसे उच्चकोटि ग्रंथों का अध्ययन किया। उन्होंने अपना कार्यक्षेत्र बनारस में सारनाथ को बनाया। यहीं वे महाबोधि सोसायटी के महासचिव देवप्रिय वलिसिंह जी के सम्पर्क में आए तथा सारनाथ में अछूत बच्चों के अध्ययन के लिए स्कूल स्थापित किया।

1940 में उन्होंने स्कूल-कॉलेज के छात्रों को ध्यान में रखकर मोग्गल्लान पालि व्याकरण के आधार पर ‘पालि महाव्याकरण’ नामक प्रगाढ ग्रन्थ लिखा जिसे आज भी भारत में पालि व्याकरण का आधार ग्रंथ कहा जाता है। विगत 82 सालों में पालि व्याकरण के क्षेत्र में ग्रंथ लिखते समय इसी ग्रंथ का पिष्ट-पेषण होता रहा है। संयुत्तनिकाय के हिंदी अनुवाद के अलावा उन्होंने आगमन और निगमन तर्कशास्त्र, अभिधम्म फिलॉसॉफी, बुद्धिज्म फॉर एवरीडे आदि अन्य अनेक ग्रंथ भी लिखे।
Bhikkhu Jagdish Kashyap

सारनाथ में निवास करते हुए उनका चित्त केवल विद्वान् बने रहने की उन्हें अनुमति नहीं दे रहा था। उनके मन में सांस्कृतिक आंदोलन चल रहा था कि बौद्ध धर्म को पुनः स्थापित करने के लिए प्रयास किए जाएं और सारनाथ की सुरम्य भूमि को छोड़कर मगध क्षेत्र में इधर-उधर भटकते हुए नालंदा में जाकर वे रुके। नालंदा कॉलेज में पालि पढ़ाना आरम्भ किया। उस समय नालन्दा में रहते हुए उनके चित्त में विद्यमान नालन्दा की पुनर्स्थापना का स्वप्न एक बार फिर जागृत होने लगा। तत्कालीन शिक्षा सचिव जगदीश चन्द्र माथुर को नालंदा में एक अंतर्राष्ट्रीय स्तर का पालि अध्ययन संस्थान खोलने के लिए तैयार किया। इस स्वप्न की पूर्ति के लिए वे जन-जन के पास गए किंतु पालि भाषा और त्रिपिटक उस समय लोगों के लिए अंजान थे तो उन्हें निराशा हाथ लगी। अंत में वे इस्लामपुर के मुस्लिम जमींदार से मिले। उन्होंने जमींदार के सम्मुख अपना भिक्षापात्र रखते हुए दान मांगा और उनसे प्रार्थना की कि आपके पूर्वजों पर नालंदा को जलाने का जो कलंक लगा हुआ है, उसे धोने का यह उचित समय है। पुनः नालन्दा में उसी स्थल पर विश्वविद्यालय बनाया जा रहा है। यह क्षेत्र आपके अधीन है। आप जमीन देकर इस कलंक को मिटाएं। और उन्होंने उनसे प्रभावित होकर 11 एकड़ ज़मीन पालि संस्थान के लिए दान दे दी, जिस पर 20 नवंबर 1951 को भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने नव नालन्दा महाविहार की आधारशिला रखी। देखते ही देखते नालन्दा में पुनः एक बार फिर से पालि और त्रिपिटकों का अध्ययन आरम्भ हो गया। नालन्दा के खण्डहर पुनः जीवित हो गए। जिस भिक्खु शीलभद्र नामक कुलपति ने कभी प्राचीन नालन्दा विश्वविद्यालय को विश्वविश्रुत किया था, बीसवीं सदी में वही काम भिक्खु जगदीस कस्सप जी ने किया। और इस तरह से नालन्दा की पहचान जो अतीत में खो गई थी, पुनः विश्वपटल पर आ गई और शीलभद्र को उसका एक सुयोग्य उत्तराधिकारी मिल गया।
Old Nalanda University

New Nalanda University

New Nalanda University

बुद्ध के महापरिनिर्वाण की 2500 वीं वर्षगांठ पर भिक्खु जगदीस कस्सप जी को भारत सरकार द्वारा समस्त त्रिपिटकों को नागरी लिप्यंतरण कर, प्रकाशित करने की एक परियोजना के रूप में स्वीकृति मिली। 1956 से 1961 की अवधि में 5 वर्ष के कठिन परिश्रम के पश्चात् 41 भागों में भिक्खु जगदीस कस्सप जी ने समस्त त्रिपिटक साहित्य को नव नालन्दा महाविहार से प्रकाशित किया। त्रिपिटकों का यह नागरी लिपि का संस्करण ‘नालन्दा संस्करण’ के नाम से विश्वभर में प्रसिद्ध है।

28 जनवरी 1976 में जापानी फूजी गुरू द्वारा राजगीर में निर्मित शांति स्तूप पर भिक्खु जगदीस कस्सप जी ने अंतिम सांस ली। यहीं उनका परिनिब्बान हुआ। नालंदा में उनका अंतिम संस्कार किया गया। नव नालंदा महाविहार और नागरी लिपि में पालि वाङ्मय जब-जब आप देखोगे तब-तब भिक्खु जगदीस कस्सप याद आएंगे। त्रिरत्न बौद्ध महासंघ के प्रमुख आचार्य संघरक्षित जी अपने आठ गुरुओं में भिक्खु जगदीस कस्सप जी को भी अपना गुरू स्वीकार किया है।

आओ अपनी विरासत को संभालने वाले अपने पूर्वजों से अपनी पीढ़ियों को परिचित करवाएं, आओ नालन्दा के कुलपति शीलभद्र के उत्तराधिकारी से उन्हें मिलाएं। नालन्दा को पुनः उसकी गरिमा लौटाने वाले और पालि साहित्य को हम तक पहुँचाने वाले भिक्खु जगदीस कस्सप जी का जन्मदिवस मनाएं। ये राष्ट्र आपका सदैव कृतज्ञ रहेगा।

"ऐ मुसलमानो! प्राचीन नालंदा विश्व विद्यालय को नष्ट करने का कलंक आपके पूर्वजों पर है। लेकिन अब आप इस कलंक से मुक्त हो सकते हैं अगर आप प्राचीन नालंदा के बदलाव का समर्थन करते हैं.... "

ये कहकर भिक्खु जगदीश कस्सप ने अपने भिखारी मुस्लिम मकान मालिक को बिहार में डाल दिया।

भिक्खू जगदीश कस्सप की ऐसी करुणामयी बातें सुनकर मुस्लिम मकान मालिक ने प्राचीन नालंदा की जगह नवनालंदा वर्ल्ड स्कूल के निर्माण के लिए 11 एकड़ जमीन भिक्षु संघ को दान कर दी।

और इसी जमीन पर 20 नवम्बर को नवनालन्दा महाविहार (विश्व विद्यालय) का शिलान्यास किया गया।

भारत में पाई जाने वाली सिविल लिपी के 5 भागों में पाई जाने वाली ट्रांसप्लांट (एक लिपि से दूसरी लिपि में लिखने) का श्रेय भिक्खु जगदीश को जाता है। जिसके पीछे लगातार छह साल (5-3) की मेहनत है।

चलो आज भिक्खू जगदीश कस्सप का जन्मदिन मनाते हैं जिन्हें हम नालंदा के कुलपति शिलाभद्र का सच्चा उत्तराधिकारी कह सकते हैं...

भिक्खु जगदीश कस्सप जी के जन्मदिवस पर उन्हें त्रिवार नमन !    

   ☸️🙏🙏🙏☸️ 

आओ करें पुञ्ञानुमोदन नालन्दा के कुलपति शीलभद्र के योग्य उत्तराधिकारी भिक्खु जगदीस कस्सप जी का

बौद्ध धर्म के प्रति आपके इस जुनून को हम भुला न सकेंगे। आपका कोटिशः पुञ्ञानुमोदन (पुण्यानुमोदन)।

सन्दर्भ:

लेखक : डॉ. विकास सिंह

(लेखक दरभंगा के ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय की अंगीभूत इकाई मारवाड़ी महाविद्यालय में संस्कृत विभागाध्यक्ष हैं।)

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