प्रमुख बौद्ध संगीतियां: Major Buddhist Council
"नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्सा"
प्रमुख बौद्ध संगीतियांMajor Buddhist Council----------------------------------------------------------------------------------इस लेख में हम आपको बौद्ध धम्म में हुई अब तक प्रमुख बौद्ध संगीतियों के बारे में विस्तार से बताने का प्रयास करेंगे। उससे पहले आइये हम बुद्ध और उनके जीवन के बारे में थोड़ा जानते हैं। तथागत बुद्ध, बुद्ध बनने के पहले एक युवराज थे। उनके बचपन का नाम सुकीति गौतम था। उनका जन्म पूर्व भारत के अविभाजित देश नेपाल के लुम्बनी वन में वैशाख पूर्णिमा के दिन ६२३ ई.पू. हुआ था। उनकी माता का नाम महामाया और उनके पिता का नाम शुद्धोदन था, जो साक्य गणराज्य के महाराज थे। उनके जन्म के सात दिन बाद ही उनकी माता महामाया की किसी गंभीर बीमारी की वजह से मृत्यु (देहावसानं) हो गई थी। तब उनकी मोसी माँ; प्रजापति गोतमी ने उनको पाला था। युवराज बचपन से ही बड़े दयालु और शांत स्वभाव के थे। युवराज बचपन से ध्यान का अभ्यास किया करते थे।
जब युवराज थोड़े बड़े हुए, तब उन्हें साक्यों के संघ में शामिल कर लिया गया। वहाँ भी वे अपने स्वभाव और न्याय कुशलता से सभी के प्रिय बन गए।
युवराज का विवाह १६ वर्ष की उम्र में यशोधरा के साथ हुआ, उस समय यशोधरा भी १६ वर्ष की ही थी। विवाह के बाद दोनों ने १३ वर्ष का शाही जीवन जिया, उसी बीच कुमार राहुल का जन्म हुआ। राहुल के आने से राजमहल में चारों तरफ खुशियाँ-खुशियाँ ही छा गयी। एक दिन सांसारिक दु:खों ने उनके मन को बहुत विचलित कर दिया। और फिर एक दिन रात्रि के समय अपने प्रिय घोड़े कंथक और अपने प्रिय मित्र छन्ना के साथ २९ वर्ष की आयु में महाभिनिष्क्रमण किया और संन्यासी जीवन अपना लिया। और ६ वर्षों के कठोर तपस्या के बाद पीपल के वृक्ष के नीचे ३५ वर्ष की आयु में उन्होंने बुद्धत्व को प्राप्त किया और सम्यक संबुद्ध बने और सभी दु:खों से मुक्ति का मार्ग खोजा।
बुद्ध बनने के बाद ४५ वर्षों तक मनुष्यों को अहिंसा, शांति, करुणा, दया, दान, सील समाधि प्रज्ञा का पाठ पढा़ते रहे। और ८० वर्ष की आयु में ५४३ ई.पू. कुशीनगर में दो शाल वृक्षों के नीचे बुद्ध महापरिनिब्बान को प्राप्त हुए। भारत को विश्वगुरु होने का गौरव प्रदान किया। ऐसे तथागत सम्यक सम्बुद्ध को मेरा शत शत नमन !
जब युवराज थोड़े बड़े हुए, तब उन्हें साक्यों के संघ में शामिल कर लिया गया। वहाँ भी वे अपने स्वभाव और न्याय कुशलता से सभी के प्रिय बन गए।
युवराज का विवाह १६ वर्ष की उम्र में यशोधरा के साथ हुआ, उस समय यशोधरा भी १६ वर्ष की ही थी। विवाह के बाद दोनों ने १३ वर्ष का शाही जीवन जिया, उसी बीच कुमार राहुल का जन्म हुआ। राहुल के आने से राजमहल में चारों तरफ खुशियाँ-खुशियाँ ही छा गयी। एक दिन सांसारिक दु:खों ने उनके मन को बहुत विचलित कर दिया। और फिर एक दिन रात्रि के समय अपने प्रिय घोड़े कंथक और अपने प्रिय मित्र छन्ना के साथ २९ वर्ष की आयु में महाभिनिष्क्रमण किया और संन्यासी जीवन अपना लिया। और ६ वर्षों के कठोर तपस्या के बाद पीपल के वृक्ष के नीचे ३५ वर्ष की आयु में उन्होंने बुद्धत्व को प्राप्त किया और सम्यक संबुद्ध बने और सभी दु:खों से मुक्ति का मार्ग खोजा।
बुद्ध बनने के बाद ४५ वर्षों तक मनुष्यों को अहिंसा, शांति, करुणा, दया, दान, सील समाधि प्रज्ञा का पाठ पढा़ते रहे। और ८० वर्ष की आयु में ५४३ ई.पू. कुशीनगर में दो शाल वृक्षों के नीचे बुद्ध महापरिनिब्बान को प्राप्त हुए। भारत को विश्वगुरु होने का गौरव प्रदान किया। ऐसे तथागत सम्यक सम्बुद्ध को मेरा शत शत नमन !
एक छोटी सी घटना महान संगीति का कारण बनी। भगवान का धम्म हेतुवादी है, अहेतुक कुछ भी नहीं है। संगीति का भी हेतु बना, एक छोटी सी घटना।घटना भी नकारात्मक है लेकिन परिणाम सकारात्मक है।
भगवान के महापरिनिर्वाण का समाचार दुःख की एक महालहर की तरह चारो तरफ फैल गया था। जो कोई भी यहा समाचार सुनता अपना आपा खो देता था और दुःख से भर जाता, लेकिन सुभद्र नाम का एक व्यक्ति यह समाचार सुनते ही ख़ुशी के झूमने सा लगा और बड़े प्रफुल्लित स्वर में कहने लगा - अच्छा हुआ की बुड्ढा मर गया, हर समय 'यह करो - यह मत करो' किया करता था, अब हमारा अनुशासन करने वाला कोई नहीं रहा, अब हम स्वतंत्र हैं, अब जो मन में आए वह करो...
यह स्वर महाकाश्यप के कान में पड़े। यह घटना ई. पू. ५४३ की है जब कुशीनगर में भगवान महापरिनिर्वाण को उपलब्ध हुए।
सुभद्र के शब्द सुनकर महाकाश्यप का मन हाहाकार कर उठा - अरे, अभी भगवान का महापरिनिर्वाण हुए एक सप्ताह भी नहीं हुआ और ऐसी लोकप्रतिक्रिया ! कुछ काल के बाद तो लोग भूल ही जाएंगे कि भगवान इस धरती पर थे भी, भगवान का धम्म क्षीण हो जाएगा। धम्म के चिरस्थायित्व के लिए कुछ प्रयास करना होगा...
तब इस भय के कारण महा कशयप ने धम्म संगीति का आह्वान किया ताकि तथागत के वचनों को संरक्षित किया जा सके क्योंकि भगवान के परिनिब्बान के समय बुद्ध के ही वचन थे - धम्म ही धम्म का उत्तराधिकारी होगा...
सुभद्र ने सोचा भी नहीं होगा की उसके अपवचन के कारण ही भगवान का सधम्म संरक्षित होगा। "सकारात्मक सोच नकारात्मक वचनों से भी सकारात्मकता को जन्म दे सकती है।"
प्रमुख बौद्ध संगीतियां:
धम्म संगीति का क्या मतलब है? धम्म संगीति में क्या होता है?
धम्म संगीति तथागत के धम्म पर बौद्ध भिक्खु द्वारा धम्म चर्चा की जाती है, जिसमे भगवान के वचनों का एक-एक पंक्ति को पूरी धम्म सभा द्वारा संगायन किया जाता है। समय की लम्बी अवधि में यदि कोई अर्थ, व्यंजन, उच्चरण में कोई दोष आ गया है तो उसे संशोधित किया जाता है। संशोधन को वरिष्ठ अर्हन्त भिक्खुओं के द्वारा सत्यापित किया जाता है, संघ का अनुमोदन प्राप्त किया जाता है।
प्रथम धम्म संगीति:
महाकशयप के आह्वान पर तथागत के परिनिब्बान के ३ माह बाद राजगृह में पहली संगीति का आयोजन राजगृह की सप्तपर्णी गुफा में हुआ जिसमें ५०० अर्हन्त भिक्खु एकत्रित हुए।
सप्तपर्णी गुफा |
संगीति में पहला सवाल उठा की भगवान के वचनों को संरक्षित करने की शुरुआत कहाँ से की जाए इसका कारण संगीति में शामिल सभी भिक्खुओं का भगवान को व्यक्तिगत रूप जानना था, हर भिक्खु के पास भगवान से जुड़ा अपना प्रसंग, अपना संस्मरण था। हर भिक्खु अपना अनुभव बताने को उत्सुक था। तब महाकशयप को भगवन के वचनों ही मार्ग सुझाया - विनयानामबुद्धसासनस्सआयु - विनय ही बुद्ध सासन (सासन - पाली वचन है) की आयु है अर्थात जब तक विनय रहेगा तब तक बुद्ध शासन रहेगा।
फिर ये तय हुआ कि सबसे पहले विनय का संगायन होगा। इस तरह सर्वप्रथम विनयपिटक का संगायन हुआ। अर्हन्त भिक्खु उपालि ने विनय का संगायन ,एवं सत्यापन किया। फिर सुत्त पिटक का संगायन एवं सत्यापन अर्हन्त भिक्खु आनंद के द्वारा संपन्न हुआ।
प्रथम धम्म संगीति में अभिधम्म का प्रथम अस्तित्व नहीं आया था। अभिधम्म सुत्त में ही अन्तर्निहित था।
सप्तपर्णी गुफा |
यह संगीति ७ माह चली। सम्राट अजातशत्रु ने इस संगीति का पोषण किया।
दूसरी धम्म संगीति:
पहली संगीति के सौ साल बाद दूसरी संगीति का आयोजन हुआ, ई.पू ४४३ में, सम्राट कालासोक के सासनकाल में, बालुकाराम विहार में। इसकी अध्यक्षता अर्हन्त सब्बकामी ने की जिनकी आयु उस समय १२० वर्ष थी और उपाध्यक्ष आचार्य रेवत थे। अर्हन्त सब्बकामी पहली संगीति में भी सम्मिलित थे। अर्हन्त आचार्य रेवत भी इस संगीति के वरिष्ठ प्रतिनिधि थे। यह संगीति एक तरह से सिर्फ विनय संगीति थी क्योंकि वैशाली के वज्जिपुत्तक संघ द्वारा विनय की मनमानी व्याख्या करके धन -सम्पत्ति इकट्ठा की जाने लगी थी, उपासकों की श्रद्धा का शोषण किया जाने लगा था। तब काकाण्डपुत्त यश के प्रयत्नों से वरिष्ट घम्मज्ञ अर्हन्तों की परिषद आमंत्रित की गयी और विनय को पुनर्स्थापित किया गया। इस संगीति में सात सौ अरहंत भिक्खु सम्मिलित हुए, इसलिए इसे सप्तशतिका संगीति भी कहा जाता है।
तीसरी धम्म संगीति:
तीसरी धम्म संगीति इतिहास की स्वर्णिम घटना है। तीसरी धम्म संगीति ई.पू. ३९८ (अनुमानित) में पाटलिपुत्र में आयोजित इस संगीति का पोषण महान सम्राट असोक के द्वारा किया गया था। इसकी अध्यक्षता सम्राट असोक के गुरु अरहंत मोगलिपुत्त तिस्स के द्वारा की गयी। यहा संगीति नौ माह तक चली। इसमें एक हजार भिक्खुओं ने भाग लिया। भगवान के परिनिब्बान के लगभग सवा दो सौ साल बीत चुके थे। बुद्ध धम्म के नाम पर अनेक मिथ्या मतों का उदय हो गया था। यश-कीर्ति-धन के लोभ में अनेक दु:शील लोग संघ में प्रविष्ट हो गए थे, वे संघ को अंदर से दूषित कर रहे थे।
संगीति अध्यक्ष मोगलिपुत्त तिस्स ने मिथ्या मतों का खंडन करते हुए 'कथावत्थु' नामक ग्रन्थ का संकलन किया और इसी संगीति में अभिधम्म पिताक स्वतंत्र अस्तित्व में आया।
संगीति के समापन पर सम्राट असोक के द्वारा अर्हन्त भिक्खुओं के नेतृत्व में नौ परिषदें पूरी दुनिया में बुद्धवाणी के प्रचार के लिए रवाना की गयीं तथा श्रीलंका को स्वयं अपने पुत्र-पुत्री अरहंत महेंद्र और थेरी संघमित्रा को भेजा। इस संगीति के बाद बुद्ध धम्म संपूर्ण दक्षिण पूर्व एशिया में फैल गया। एक तरफ से विश्व पर भारत की यह धम्म विजय थी।
चौथी धम्म संगीति:
चौथी धम्म संगीति के रूप में दो संगीतियाँ दर्ज हैं। एक ई.पू २९ में सम्राट वट्टगामिनी के काल में श्रीलंका में और दूसरी सम्राट कनिष्क के काल में ईस्वी ८० में कश्मीर के कुण्डलवन में। यद्यपि श्रीलंका की संगीति की अधिक मान्यता है क्योंकि इसमें थेरवादी भिक्खुओं ने हिस्सा लिया था। थेरवादी परम्परा श्रीलंका की संगीति को ही चौथी संगीति मानती है। श्रीलंका की इस पाँच सौ थेरों ने प्रतिभाग किया था तथा इसकी अध्यक्षता महाथेर रक्खित ने की थी। इस संगीति के बाद बौद्ध धर्म के हीनयान और महायान संप्रदाय अलग हो गए।
ईस्वी ८० में भारत में सम्राट कनिष्क के काल में कश्मीर के कुण्डलवन में आयोजित संगीति की अध्यक्षता आचार्य वसुमित्र ने की थी तथा उपाध्यक्ष आचार्य अश्वघोष थे जिन्हें बुद्ध का प्रथम जीवनीकार माना जाता है - बुद्धचरित। एक तरह से संगीति की परम्परा को जीवित रखने भारत में यह अंतिम प्रयास था।
तीसरी संगीति तक बुद्ध वचन श्रुत परम्परा से संरक्षित रहे। श्रुत परमपरा अर्थात मौखिक रूप से। सुत्तधर वरिष्ठ भिक्खु अपने शिष्यों को सुत्तों का सस्वर पाठ कराते थे। समस्त संघ उसकी समवेत स्वर में पुनरावृति करता है। पूर्णिमा - अमावस्या - कृष्णपक्ष अष्ठमी -शुक्लपक्ष अष्ठमी माह के इन चार दिनों में विशेष परिषदों में भिक्खु संघ सुत्त संगायन का विशेष अनुष्ठान करता था जिसे पातिमोक्ख परिषद भी कहा जाता था। बौद्ध देशों में यह परम्परा आज भी जीवित है। इस श्रुत परम्परा के द्वारा बौद्ध आचार्यों ने सिर्फ शब्दों संरक्षित और हस्तान्तरित नहीं किया बल्कि वह मौलिक ध्वनि, स्वर, उच्चरण का उतार-चढ़ाव-ठहराव भी संरक्षित व हस्तान्तरित किया जिस स्वर में पहली संगीति में पांच सौ अरहन्तों ने भगवान की वाणी का संगायन किया था। यह संगायन वातावरण में आधयात्मिक तरंगों को जन्म देता है जिससे नकारात्मक तरंगे एवं ऊर्जा निष्प्रभावी होती है। इन तरंगों के बड़े चमत्कारिक विवरण भी इतिहास में दर्ज हैं जिन का उल्लेख करने से विषयांतर हो जाएगा। अस्तु।
तीसरी संगीति तक बुद्ध वचन श्रुत परम्परा से संरक्षित थे और वही ध्वनि-स्वर-उच्चरण-स्वर का आरोह-अवरोह परम्परागत रूप से सदियों से आज भी कायम है, भारत में नहीं दिखता लेकिन बौद्ध देशों में इसे आज तक संजोया गया है।
सम्राट असोक ने बुद्ध वाणी का सारी दुनिया में प्रसार कर बड़ा दूरदर्शी कदम उठाया कि यदि कभी भारत में यह परम्परा बाधित भी हो तो शेष दुनिया में बुद्ध वाणी बची रहे। और सच में कालांतर में ऐसा ही हुआ भी। भारत से यह परम्परा लुप्त जैसी हो गयी लेकिन बौद्ध देशों में बुध्द वचन अपने मौलिक रूप में आज भी यथावत जीवन्त है।
श्रीलंका की चौथी संगीति में तिपिटक के मौलिक संगायन के साथ एक अनूठा काम और हुआ कि तिपिटक को भोजपत्रों पर लिपिबद्ध किया गया ताकि बुद्ध वाणी हमेशा के लिए अपने विशुद्ध रूप में संरक्षित रह सके।
धम्म के शुद्ध स्वरूप को संरक्षित रखने के लिए जितनी सजगता बौद्धों ने बरती शायद ही दुनिया के किसी अन्य सम्प्रदाय ने ऐसा किया होगा। लगभग सभी सम्प्रदायों के धर्मग्रंथों में क्षेपकों के आरोप हैं लेकिन तिपिटक इन आरोपों से लगभग मुक्त है। तिपिटक को शुद्ध व त्रुटिरहित रखने में बौद्धों ने बड़ा तप किया। यह तथ्य भी उल्लेखनीय है कि दुनिया की किसी भी धार्मिक परम्परा के पास इतना विशाल शास्त्रीय धम्म साहित्य, नहीं है जो बौद्धों के पास है। सम्पूर्ण तिपिटक इन्साइक्लोपेडिया ब्रिटानिका के समस्त खण्ड से भी अधिक विशाल है।
सम्राट वट्टगामिनी के काल में ई.पू २९ में श्रीलंका में आयोजित चौथी संगीति में पांच सौ विद्वान थेरों ने प्रतिभाग किया। जिसकी अधयक्षता महाथेर रक्खित ने की। संगायन के उपरांत संपूर्ण तिपिटक को लिपिबद्ध करके बुद्ध वचनों को हमेशा के लिए शुद्ध स्वरूप प्रदान किया गया।
पाँचवी धम्म संगीति:
सम्राट असोक की दूरदर्शिता काम आयी। १२वीं शताब्दी के बाद से भारत से बुद्ध धम्म लुप्त-सा होने लगा लेकिन शेष बौद्ध देशों में यह अपनी संपूर्ण प्रभा दमकता-चमकता रहा।
संपूर्ण बौद्ध इतिहास का अवलोकन करें तो पाते हैं कि बुद्ध का धम्म नष्ट कभी नहीं हुआ। यदि अलंकारिक रूप से कहें तो बुद्ध धम्म सूर्य है। जब वह एक स्थान पर अस्त होता दिखता है तब ठीक उसी समय धरती के किसी दूसरे भूभाग में उसका उदय हो रहा होता है। जब भारत से धम्म का सूर्य अस्त होता दिख रहा था, उसी समय श्रीलंका, नेपाल, बर्मा, कंबोडिया, लाओस आदि देशों में यह अपनी पूरी प्रभा के साथ चमक रहा था। इन देशों में भारत के प्रति आभार और आदर का भाव है। बौद्ध देशों के श्रद्धालुजन भारत की ओर पैर करके सोते नहीं है, सुबह उठ काज भारत की ओर मुख करके हाथ जोड़कर वंदना करते हैं।
संगीति की परम्परा भारत से लुप्त-सी हो गयी लेकिन अपने गुरु देश के प्रति आभार भावना से भरे बौद्ध देशों ने इस परम्परा को पूरी शुद्धता के साथ यथावत जीवित रखा।
छठी धम्म संगीति:
एक बात जो ध्यान देने योग्य है कि संगीति जब भी होती है रक अध्यक्षता किसी अर्हन्त भिक्खु के द्वारा ही होती है। पुण्यशाली है वह काल जब संगीति होती है और पुण्यवान हैं वे लोग जो उस महान घटना के साक्षी व सहभागी बनते हैं, अर्हन्त के दर्शन करते हैं। श्रोतापन्न, सकृदगामी, अनागामी, अर्हन्त अवस्था प्राप्त एवं मार्गगामियों की सेवा करने व उन्हें दान का पावन अवसर मिलता है। संगीति का आयोजन एक आध्यत्मिक घटना है।
इतिहास में छठी संगीति का श्रेय भी बर्मा को जाता है। छठी संगीति कई मायनों में अनूठी है।
पूर्व की ५ संगीतियाँ राजकीय संरक्षण में हुई अर्थात उनका पोषण राजाओं द्वारा किया गया। छठी संगीति पहली बार एक लोकतांत्रिक सरकार के संरक्षण में हुई जिसके प्रधान ऊ नू थे।
सन १९५४ में शरू हुई संगीति दो साल के उपरांत सन १९५६ में मई माह में बुद्ध पूर्णिमा के दिन सम्पन्न हुई। उस समय तक भी बर्मा ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन ही था इस कारण पहली बार पश्चिमी देशों के लोग भी इस महान घटना के साक्षी बने। इसमें बर्मा के अतिरिक्त श्रीलंका, थाईलैंड, कंपूचिया, भारत के भिक्खुओं को मिलाकर २५०० मान्य भिक्खु सम्मिलित हुए जिसकी अध्यक्षता श्रेद्धय अभिधज महारट्ठगुरु भदन्त रेवत ने की। इस संगीति में सम्पूर्ण तिपिटक, इसकी अट्ठकथाओं, टीकाओं आदि को मान्य आचार्यों द्वारा पुनः जांचा-परखा गया।
छठी संगीति में, जो की दो साल चली, बर्मा की मूल लिपि म्रंम लिपि में सम्पूर्ण तिपिटक को मुद्रित कराया गया। यह संगीति बर्मा की धरोहर हो गयी।
किच्छो मनुस्सपटिलाभो किच्छं मच्चान जीवितं।
किच्छं सद्धम्मसवणं किच्छो बुद्धान उप्पादो।।
मनुष्य योनि में जीवन पाना अति दुर्लभ है, मनुष्य जीवन मुश्किल से बना रहता है अर्थात मृत्यु निश्चित है। सद्धम्म का सुनना मुश्किल से मिलता है, बुद्धों का उतपन्न होना दुर्लभ है।
साधु! साधु! साधु!
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