Maudgalyayana: बौद्ध भिक्षु महामौद्गल्यायन का जीवनवृत्तांत

बौद्ध भिक्षु महामौद्गल्यायन का जीवनवृत्तांत

Maudgalyayana: बौद्ध भिक्षु महामौद्गल्यायन का जीवनवृत्तांत
 बौद्ध भिक्षु महामौद्गल्यायन
बौद्ध भिक्षु Maudgalyayana / महामौद्गल्यायन का जन्म राजगृह के समीप कोलित गांव में हुआ था। जिस दिन सारिपुत्र जन्में वे भी उसी दिन पैदा हुये। गांव ही के नाम पर उनका नाम कोलित पड़ा। उनकी माता (मोग्गली) मोग्गलानी थी। पिता गांव में मुख्य माने जाते थे ।

प्रव्रज्या ' के कुछ ही समय बाद भगवान ने सारिपुत्र को प्रधान धर्म सेनापति और मौद्गल्यायन को द्वितीय धर्मसेनापति घोषित किया। इससे अन्य भिक्षुओं की कोई प्रतिक्रिया न हो इस कारण भगवान ने भिक्षुओं को उपदेश देकर वे इस पद के योग्य है, समझाया ।

एक स्थान पर भगवान ने दूसरे भिक्षुओं से पृथक करते हुये दोनों को जुड़वा भाई कहा है । सारिपुत्र चार आर्यसत्यों को पढ़ाने में और समझाने में विशेष समर्थ थे। दूसरी ओर मौद्गल्यायन अपनी ऋद्धिप्रातिहार्य द्वारा शिक्षा देने में विशेष निपून थे । 

महामौद्गल्यायन ऋद्धिबल से प्राणियों को कई गुणा घटा बढ़ा सकते और अपने आपको चाहे जिस रूप में परिवर्तित कर सकते थे। कहा जाता है कि वे सेम की फल्ली के समान सुमेरु को दबा सकते थे और चटाई की तरह पृथ्वी को अपनी उंगलियों द्वारा लपेट सकते थे तथा कुंभार के चक्के के समान उसे घूम ले सकते थे । '

एक बार भगवान के कहने पर मौद्गल्यायन ने अपने अंगूठे से मिगार- मातुप्रासाद को हिलाया जिससे भूकंप के समान शब्द हुआ। उसी में फर्स  पर बैठे कुछ भिक्षु बेकार की बाते कर रहे थे, यह जानते हुये भी कि भगवान ऊपर के तल्ले पर विराजमान हैं। उन्हीं भिक्षुओं को डराने के लियें मौद्गल्यायन ने ऐसा किया था ।

महामौद्गल्यायन ऋद्धिबल से दूसरे दूसरे लोक में जाया करते थे । एक समय वे शक्र के पास यह देखने गये कि भगवान की शिक्षा के लिये उनके मन में कितना आदर है। उन्होंने इन्द्र को बड़ा अभिमानी और कामभोग में महत पाया। उन्होंने उसका वैजयंत महल झकझोर दिया। डर के मारे इन्द्र कांपने  लगा । उसका सारा अभिमान चूर चूर हो गया । उस वक्त भगवान श्रावस्ती में मिगारमातुप्रासाद में ठहरे हुये थे । इन्द्र ने मिगारमाता के पूर्वाराम को नीचा दिखाते हुये अपने वैजयंत प्रासाद की बढ़ाई की। मौद्गल्यायन ने अपने पैर के अंगूठे की ठोकर से इन्द्र के महलको हिला दिया । इसी प्रकार ये एक बार ब्रम्हलोक गये । वे बक ब्रम्हा का मिथ्या विश्वास दूर कराने में भगवान की मदद करना चाहते थे । मौद्गल्यायन के आगमन के बाद बक ब्रम्हाको मानना पड़ा था कि उसकी पूर्व धारणा गलत थी ।

एक बार मार ने मौद्गल्यायन के पेट में घुस कर बड़ा हैरान किया था। वे उस वक्त भग्गु में सुसुमारगिरि में सकलवन-मृगदाय में विहार करते थे । रात को खुले आकाश में जब टहल रहे थे तो उसी समय मौका पाकर उनकी कुक्षी में प्रवेश किया । उनको लगा कि पेट जैसे फूलता जा रहा है। ये विहार के अंदर जा बिछे आसन पर बैठ गये । उन्होंने मार को देखा और पहचाना। बाहर निकलने की आज्ञा दी- "पापी मार बाहर निकल ।

"मार ने सोचा- " मुझे बिना जाने, देखे यह कह रहा है, इनके शास्ता भी मुझे जल्दी नहीं जान पाते तो यह कैसे जान सकता है ।"

मौद्गल्यायन ने मार से पुनः कहा, "पापी मार तू यह मत समझ कि मैं तुझे नहीं जानता ।"

तब मार यह सोच बाहर निकल आया कि यह मुझे जान गया । सामने मार को देख उन्हों ने कहा, " हे पापी मार पहले इदूसी नाम का मार था । इदूसी की काली नाम की एक बहन थी । तू उसीका पुत्र है । इस कारण तू मेरा भानजा हुआ । 

मौद्गल्यायन का सब से बड़ा ऋद्धि प्रातिहार्यं नंदोपनंद नाग का पराभव करने वाला था । इस कार्य के लिये दूसरा कोई भी भिक्षु योग्य नहीं था।

क्यों कि मौद्गल्यायन की तरह तुरंत चौथे ध्यान में प्रविष्ट होना किसी के सामर्थ्य की बात नहीं थी । इसी कारण भगवान ने मौद्गल्यायन को ही चुना था । "

जो चीजें किसी भिक्षुको ध्यान लगाने पर भी नहीं दिखाई देती उन्हें मौद्गल्यायन बिना ध्यान लगाये ही देख सकते थे। वे विभिन्न लोक में जाते थे और वहाँ के निवासियों के बारे में भगवान से आकर कहते । उन बातों का उपयोग भगवान अपने उपदेश में करते । अन्य लोक में किस प्रकार यात्रा । थे उनका वर्णन पालि ग्रंथों में दिया गया है। " 

यद्यपि ऋद्धिबल उनकी सब से बड़ी विशेषता थी परंतु ज्ञान में भी वे सारिपुत्र से कम न थे । भगवान के ये दो शिष्य ऐसे थे जो किसी भी प्रश्न का उत्तर क्रम से और विस्तृत रूप से दे सकते थे । 

ऐसे कई अवसर पाये जाते है जब भगवान ने मुक्त कंठ से मौद्गल्यायन की प्रशंसा की । एक समय भगवान कपिलवस्तु में विहार करते थे । वहाँ उन्हों ने शाक्यों को उपदेश दिया। शाक्यों के चले जाने पर भगवान विश्राम करना चाहते थे । उन्हों ने भिक्षुओं को उपदेश देने की उन्हें आज्ञा दी । मौद्गल्यायन ने इच्छा और उस से मुक्ति के संबंध में उपदेश दिया । उपदेश के समाप्ति पर भगवान ने उनकी भूरी भूरी प्रशंसा की थी ।

जिस समय माता को अभिधर्मका उपदेश देने भगवान तांवतिस लोक गये थे तब मौद्गल्यायन ही थे जिन्होंने भगवान के लौट आने तक लोगों को उपदेश दिया था । भगवान के आने तक इकट्ठे लोगों की भौतिक आवश्यकतायें अनाथपिण्डिक ने पूरी की थी ।

भगवान द्वारा बताया गया ऐसा कोई भी कार्य नहीं था जिसे मौद्गल्यायन नहीं कर सकते थे । भगवान की आज्ञा होते ही वे उस काम को कर डालते । वे इस कारण अपने को भाग्यशाली समझते । एक मर्तबा भगवान अर्हत् उग्रसेन को देखना चाहते थे । उन्हें बुलाने के लिये उन्हों ने मौद्गल्यायन को भेजा था। इस प्रकार भगवान ने उन्हें सक्खर, मच्छरिय, कोसिक की सुविधा असुविधा की परीक्षा करनें भेजा था । 

सारिपुत्र मौद्गल्यायन पर भगवान की बडी आस्था थी। भगवान ने संघ को पवित्र रखने का पूरा अधिकार और संघ का सारा उत्तरदाईत्व उन दोनों को सौंप दिया था । एक बार मौद्गल्यायन ने एक दुष्ट भिक्षु को कमरे से बाहर कर दिया और द्वार बंद किया ।

 "बिना कारण ही एक समय एक भिक्षु ने सारिपुत्र पर दोषारोपन किया था । उस वक्त किसी यात्रा के लिये रवाना होने वाले थे । मौद्गल्यायन और आनंद हर कमरे में जा भिक्षुओं को इकट्ठा करने लगे ताकि वे उस का फैसला स्वयं सारिपुत्र से ही सुन लें। "

राहुल की प्रव्रज्या में सारिपुत्र उनके उपाध्याय और मौद्गल्यायन आचार्य बने थे । एक स्थल पर मौद्गल्यायन को राहुल का कर्मवाचाचार्य बताया गया है।

मौद्गल्यायन में विशेष श्रद्धा रखने वालों में तिष्य, वड्ढमान और पोट्ठिल मुख्य थे । उन्हों ने गाथाओं में मौद्गल्यायन की बड़ी प्रशंसा भी की है वे तीनों एक समय पांच सौ भिक्षुओं के साथ, कालशीला पर ठहरे हुये थे । अर्हत् पद प्राप्ति करने तक वे सबकी देख भाल करते रहे। उनका यह कार्य है ।

सारांश:-

जब पहली बार सारिपुत्त और मौद्गल्यायन को देखा था तब ही भगवा बुद्ध ने उनकी विद्वता पहचान ली थी, इन्हें देखते ही भगवान ने उन्हें पहचान लिया और भिक्षुओं से कहा, " ये दोनों मेरे अग्रश्रावक होंगे ।"

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