Paritran Path / परित्राण पाठ सुत्त
परित्राण पाठ
परित्राण का अर्थ होता है रक्षा। परित्राण पाठ से व्यक्ति का कल्याण होता है। भूत-प्रेतों का उपद्रव शांत हो जाता है, विषम रोग दूर हो जाते हैं और सदा देवताओं की आरक्षा बनी रहती है। इसलिए रोगी होने पर, गृहारम्भ आदि शुभ कर्मों में, विवाह-मङ्गल में, भोजन-दान के बाद में और अपने परिवार के कल्याण के लिए परित्राण पाठ किया या कराया जाता है। बौद्ध गृहस्थों एवं भिक्खुओं का यह दृढ़ विश्वास है की परित्राण पाठ से सभी अमङ्गल नष्ट हो जाता है।
परित्राण पाठ भिक्खुओं द्वारा किया जाता है, लेकिन जहां भिक्खु न हो वहां योग्य गृहस्थों द्वारा परित्राण पाठ कराया जा सकता है। अपने कल्याण के लिए स्वयं पाठ करना भी लाभदायक होता है।
आवाहन
समन्ता
चक्कवालेसु, अत्रागच्छन्तु देवता।
सद्धम्मं
मुनिराजस्स, सुणन्तु सग्गमोक्खदा।।
हे समस्त चकवालासी देवगण ! आप लोग यहाँ आएँ और मुनिराज भगवान बुद्ध के स्वर्ग तथा मोक्षदायक सद्धम्म का श्रवण करें
धम्मसवणकालो
अयं भदन्ता,
धम्मसवणकालो
अयं भदन्ता,
धम्मसवणकालो अयं भदन्ता।
हे
माननीय देवगण ! यह धम्म श्रवण
करने का समय है।
--३
महामङ्गल सुत्त
--------------------------------------------------------
नमो
तस्सा भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धासा - 3
उन भगवान अरहत सम्यक सम्बुध्द को नमस्कार है। - 3
यं
मङ्गलं द्वादसहिं चिन्तयिंसु सदेवका।
सोत्थानं
नाधिगच्छन्ति अट्टतिंसञ्च मङ्गलं ॥
देसितं
देवदेवेन सब्बपापविनासनं ।
सब्बलोक-हितत्थाय मङ्गलं तं भणामहे ।।
जिन मंगल धर्मों के सम्बन्ध में बारह वर्षों तक (मनुष्य तथा) देवताओं सहित लोक में विचार किया गया, किंतु उनका ठीक से ज्ञान न हो सका, उन अड़तीस मंगलों का देवाधिदेव (भगवान बुद्ध) ने सब पापों के विनाश लिए उपदेश दिया। सर्व लोक-हित के लिए हम उन मंगल धर्मों को कह रहे हैं।
एवं मे सुतं। एकं समयं भगवा सावत्थियं विंहरतिं जेतवने अनाथपिंण्डिकस्स आरामे। अथ खो अञ्ञतरा देवता अभिक्कन्ताय रत्तिंया अभिंक्कन्तवण्णा केवलकप्पं जेतवनं ओभासेत्वा येन भगवा तेनुपसङ्कमि, उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमतं अट्ठासि। एकमन्तं ठिता खो सा देवता भगवन्तं गाथाय अज्झभासि --
ऐसा मैंने सुना। एक समय भगवान् श्रावस्ती में अनाथपिण्डिक के जेतवनाराम में विहार कर रहे थे।उस समय एक देवता रात्रि बीतने पर अपनी दीप्ति से समस्त जेतवन को आलोकित कर जहाँ भगवान् थे, वहाँ आया। आकर भगवान् का अभिवादन कर एक ओर खड़ा हो गया। एक ओर खड़े हो वह गाथा में भगवान् से बोला
बहु
देवा मनसुस्सा च, मङ्गलानि अचिन्तयुं
।
आकङ्खमाना सोत्थानं, ब्रहि मङ्गलमुत्तमं ॥1॥
कल्याण की आकांक्षा करते हुए बहुत देवताओं और मनुष्यों ने मंगल के विषय में विचार किया है। आप बतावें कि उत्तम मंगल क्या है ||1||
असेवना
च बालानं, पण्डितानञ्च सेवना ।
पूजा च पूजनीयानं, एतं मङ्गलमुत्तमं ॥2॥
(भगवान् ने कहा) मूर्खों की संगति न करना, पंडितों (ज्ञानियों) की संगति करना और पूज्यों की पूजा करना यह उत्तम मंगल है ||2||
पतिरूपदेसवासो च, पुब्बे च
कतपुञ्ञता ।
अत्तसम्मापणिधि च, एतं मङ्गलमुत्तमं ॥3॥
अनुकूल स्थानों में निवास करना, पूर्व जन्म के संचित पुण्य का होना और अपने को सन्मार्ग पर लगाना – यह उत्तम मंगल है ॥3॥
बाहुसच्चञ्च
सिप्पञ्च, विनयो च सुसिक्खतो ।
सुभासिता
च या वाचा, एतं
मङ्गलमुत्तमं ॥4॥
माता-पितु उपट्ठानं, पुत्तदारस्स सङ्गहो ।
अनाकुला
च कम्मन्ता, एतं मङ्गलमुत्तमं ॥5॥
दानञ्च
धम्मचरिया च, ञातकानञ्च सङ्गहो
।
अनवज्जानि कम्मानि, एतं
मङ्गलमुत्तमं ॥6॥
आरति
विरति पापा, मज्जपाना च सञ्ञमो ।
अप्पमादो
च धम्मेसु, एतं
मङ्गलमुत्तमं ॥7॥
गारवो च निवातो च, सन्तुट्ठी च कतञ्जुता ।
कालेन
धम्मस्सवनं, एतं
मङ्गलमुत्तमं ॥8॥
पूजनीय व्यक्तियों का गौरव करना, नम्र होना, सन्तुष्ट रहना, कृतज्ञ रहना और उचित समय पर धर्म-श्रवण करना -
यह उत्तम मंगल है ||8||
खन्ति
च सोवचस्सता, समणानञ्च
दस्सनं ।
कालेन धम्मसाकच्छा, एतं मङ्गलमुत्तमं ॥9॥
यह उत्तम मंगल है ||9||
तपो च ब्रह्मचरियञ्च,अरियसच्चानदरसनं
।
निब्बानसच्छिकिरिया च, एतं मंङ्गलमुत्तमं ॥10॥
फुट्ठस्स
लोकधम्मेहि, चित्तं यस्स न कम्पति।
असोकं
विरजं खेम, एतं मङ्गलमुत्तमं ॥11 ॥
एतादिसानि
कत्वान, सब्बत्थमपराजिता ।
सब्बत्थ
सोत्थिं गच्छन्ति, तं तेसं मङ्गलमुत्तमं'ति ॥12॥
इस प्रकार के कार्य करके सर्वत्र अपराजित हो (ये लोग) कल्याण को प्राप्त करते है – यह उनके लिए (= देवताओं तथा मनुष्यों के लिए) उत्तम मंगल है ||12||
भवतु सब्बमंगलं।
Post a Comment