भारत में बौद्ध यात्रा स्थल
भारत में बौद्ध स्थल
भारत भूमि आदि काल से ही बुद्धों की भूमि रही है। तथागत बुद्ध से पहले भी जम्बू द्वीप के भारत देश में कई बुद्ध थे। तथागत बुद्ध के धम्म ग्रंथ टिपिटक में बुद्ध की वाणी मानी जाती है, तथागत बुद्ध के स्थान 27 और बुद्धों का उल्लेख है। ये साफा होता है भारत बुद्धों की भूमि का। कुछ दशकों तक हमें तथागत गौतम बुद्ध के बारे में भी ठीक से नहीं पता था, और अब तथागत बुद्ध से भी पहले बुद्धों के बारे में कोई जानकारी नहीं मिली है बल्कि उनके जन्म स्थान के बारे में अभी तक पता चला है। ये सभी बातें इस बात का संकेत देती हैं कि भारत भूमि की शुरुआत ही बुद्धों की भूमि से हुई थी, बुद्धों का ज्ञान प्राप्त करने के लिए कई विदेशी यात्री पूर्व में बुद्ध की खोज में भारत आए थे। जिनमें फ़ाहियान (405-411 ई.), ह्वेन सांग ( चीन से 630-645 ई .), और इत्सिंग (671- 695 ई.) प्रमुख हैं। इन सभी चीनी यात्रियों की भारत यात्रा का एक मात्र उद्देश्य बुद्ध धम्म को जानना था। बुद्धों के ज्ञान के कारण ही भारत को विश्वगुरु कहा जाता है। बुद्ध ने ही विश्व को शांति का संदेश क्यों दिया।
भारत में बौद्ध स्थल: भारत में बौद्ध स्थल यात्रा
1 कपिलवस्तु (साक्य गणराज्य):
1. लुंबनी
2. बोधगया
3. सारनाथ
4. कुशीनगर
5. संकिसा
6. श्रावस्ती
7. वैशाली
8. साँची स्तूप
9. रामग्राम स्तूप
10. राजगीर
1. लुम्बनी नेपाल
भगवान बुद्ध का जन्म 623 ईसा पूर्व में दक्षिणी नेपाल के तराई में लुंबिनी वन की पवित्र भूमि पर स्थित था, जैसा कि ईसा पूर्व 249 में मोरिया (मौर्य) के सम्राट अशोक द्वारा किया गया था।
पौराणिक जम्बूदीप की प्राचीन रीति रिवाज में कहा गया है कि जब कोई महिला गर्भवती होती है तो अपने बच्चे को जन्म के लिए पीहर ले जाती है, माता महामाया की पालकी लुंबनी वन से गुड़ रही थी उसी दौरान माता ने महामाया के जन्म के समय वेदना को बताया था नष्ट कर दिया था. पालकी साल के पेड़ के नीचे की ओर प्रस्थान हुआ और अंत में सुकीती राजकुमार का जन्म हुआ। सुकीती राजकुमार के बारे में असित मुनि ने भविष्यवाणी की थी कि यह बच्चा या तो सम्राट सम्राट बनेगा या बहुत बड़ा सम्यक संबद्ध बनेगा।
अतिरिक्त जानकारी ( नया शोध) :-
महामाया उपाधि है। असली नाम नहीं है.
तथागत जैसे ही प्रारंभिक पुत्र को जनने के कारण बुद्ध की माता के लोगों ने कालान्तर में "महामाया" (महामाता) की डिग्री को नष्ट कर दिया था।
यही अब मॉडल है।
जे. एफ. फ्लीट ने "दी रुम्मिनदेई इन चर्च एंड दी कंवर्जन ऑफ असोक टू बुद्धिज्म" (अप्रैल, 1908) में लिखा है कि अशोक के रुम्मिनदेई स्तंभ के पास एक टीला है, टीले के ऊपर एक देवी का स्मारक है, किले का नाम रुम्मिनदेई है.. ..अर्थात रुम्मिन देवी है...
रुम्मिनदेई (लंमिनी) बुद्ध की मां का असली नाम था...वैशाख पूर्णिमा को उनकी विशेष पूजा होती है...इसी दिन बुद्ध का जन्म हुआ था...
रुम्मिनदेई की यह प्रतिमा अशोक कालीन है...इसमें जो पत्थर लगे हैं....वहां मौजूद हैं अशोक स्तंभ के पत्थर से पिघले हुए हैं....
यह प्रतिमा बुद्ध की मां की है....अंडा हाथ से शाल वृक्ष की मूर्ति और बाहे तीन परिचारिकाएं साथ हैं...यह प्रतिमा बुद्ध का जन्म-प्रसंग पर आधारित है....
रुम्मिनदेई पुरातत्वविद् के प्राचीन नाम हैं...अशोक ने "लुनमिनि" लिटवाया...फाहियान ने "लुनमिन" कहा...ह्वेनसांग ने "ला-फा-नी" कहा....ये सभी नाम रुम्मिनदेई के अलग-अलग हैं -अलग उच्चारण हैं....
रुम्मन देई (लुंमिनी/ लुंबिनी) के पुत्र बुद्ध थे।
कोलिय राजा अंजन की दो बेटियाँ थीं---बड़ी रुम्मन और छोटी रुप्पन।
साहित्य में रुम्मन को महामाया और रुप्पन को महाप्रजापति कहा गया है।
रुम्मन, सुकिति (गौतम बुद्ध) की माँ वाली और रुप्पन मौसी वाली।
रुम्मन ने सुकिति को जन्म दिया था और रुप्पन ने उनका पालन-पोषण किया था।
रुम्मन को श्रद्धावश महामाया कहा जाता है। महा का अर्थ महान और माया का अर्थ माता है। प्राकृत में माता को माया कहा जाता है।
इसलिए महामाया का अर्थ महान माता (ग्रैटमाता) हुआ। सुकिति की माँ का असली नाम महामाया नहीं था। बाद में यह श्रद्धावश नाम दिया गया।
उसी प्रकार रुप्पन का असली नाम महाप्रजापति नहीं था। चौधरी रुप्पन ने सुकिति का पालन पोषण किया था। श्रद्धावश लोग उन्हें महाप्रजापति दर्शन लागे।
डॉ. राजेंद्र प्रसाद सिंह (भाषा वैज्ञानिक एवं इतिहासकार)
साक्य तालाब के अंतर्गत तटीय संरक्षण क्षेत्र शामिल है; महामाया देवी मंदिर के अंदर के ऐतिहासिक मंदिर हैं, जिनमें ईसा पूर्व से लेकर वर्तमान शताब्दी तक तीसरी शताब्दी तक की संरचनाएं और बल पत्थर का अशोक स्तंभ है, जिस पर धम्म ब्राह्मी लिपि और पाली भाषा में लिखा गया है।
तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व से 15वीं शताब्दी ईसा पूर्व तक के बौद्ध विहारों (मठों) और स्तूपों (चैत्य/स्मारक आदि) के समुद्री तट, बहुत प्रारंभिक काल से लेकर बौद्ध तीर्थस्थलों की प्रकृति के बारे में महत्वपूर्ण मान्यताएँ प्रदान करते हैं। इस स्थल को अब बौद्ध तीर्थस्थल के रूप में विकसित किया जा रहा है।
संरक्षण एवं प्रबंधन आवश्यक:
सामग्री को स्थलीय प्राचीन स्मारक संरक्षण अधिनियम 1956 द्वारा संरक्षित किया गया है। साइट प्रबंधन लुंबिनी क्रिएटिव ट्रस्ट द्वारा किया जाता है, जो एक स्वार्थी और गैर-सैन्य संगठन है। संपूर्ण संपत्ति नेपाल सरकार के स्वामित्व में है। प्रोपार्टी मास्टर योजना क्षेत्र के केंद्र में मौजूद है, लार्ज योजना संयुक्त राष्ट्र के साथ मिलकर शुरू हुई थी और 1972 और 1978 के बीच प्रो. केन्ज़ो तांगे द्वारा कार्यान्वित की गई थी।
बुध जन्म स्थल के धार्मिक आधार की साख सुनिश्चित करने के लिए एक प्रबंधन योजना विकसित की जा रही है, जबकि संपत्ति को दुनिया भर से तीर्थयात्रियों और विद्वानों द्वारा यात्रा करना जारी रखा गया है।
4.बोधगया, बिहार, भारत में बौद्ध स्थल
भारत में गोतम सुकीति का बुद्धत्व प्राप्ति स्थल
बौद्ध तीर्थयात्राओं और तीर्थयात्रियों के लिए बौद्ध तीर्थयात्राओं और तीर्थयात्रियों को अवश्य जाना चाहिए। राजकुमार गोतम तपस्या करने के लिए अपना राजसी जीवन त्यागने के बाद, गोतम सिद्धार्थ ज्ञान प्राप्त करने के लिए 49 दिनों तक यहां बोधि वृक्ष के नीचे ध्यान में बैठे रहे। बोधि वृक्ष के नीचे पत्थर की एक लाल शिला वह स्थान है जहाँ बुद्ध ने कई दिनों तक ध्यान किया था।
प्रसिद्ध महाबोधि तेनपाल को भी जाना जाता है जिसमें गहन ध्यान में लीन गोतम बुध की एक विशाल मूर्ति है। इस विहार में बार-बार बौद्ध धर्मावलम्बी और पर्यटक आते हैं जो भगवान बुद्ध के जीवन और शिक्षाओं के बारे में जानने की इच्छा रखते हैं।
श्रद्धेय महाबोधि टेंपल 2001 से विश्व पिरामिड स्थानों की सूची का भी हिस्सा दिया जा रहा है। इस स्थान में एक अलग ही आकर्षण का अनुभव होता है जब स्वयं दलाई लामा सहित कई भिक्षु आश्रम से बोधगया आते हैं।
भ्रमण संबंधी जानकारी:
महाबोधि तेनपाल का सफर/यात्रा
बिहार>पटना>महाबोधि टेंपल
दिल्ली एयरपोर्ट से पटना की दूरी - 1043 कि.मी
पटना से महाबोधि टेंपल की दूरी - 116 -120 कि.मी
दिशा -
महाबोधि मंदिर का समय: सुबह 5:00 बजे से रात 9:00 बजे तक; सप्ताह के हर दिन
बिहार से दूरी: 69 किमी
यात्रा का समय: अक्टूबर से मार्च
यात्रा सलाह: बोधगया में सुपरमार्केट-ढाले कपड़े और साधारण सैंडल चप्पल। मंदिर परिसर के अंदर प्रवेश करने से पहले आपको अपनी कीमतें बेचनी होती हैं।
5. सारनाथ, उत्तर प्रदेश (भारत)
महत्त्व
वाराणसी के निकट सारनाथ भारत में बौद्ध धर्म का सबसे महत्वपूर्ण पवित्र स्थान है। यह छोटा सा शहर वह स्थान है जहां भगवान बुद्ध ने ज्ञान प्राप्त करने के पांच सप्ताह बाद अपना पहला उपदेश दिया था। इसके अलावा, यह सारनाथ वही है जहां प्रसिद्ध है "बुद्धं शरणं गच्छामि" की गूंज शुरू हुई। यदि आप बुध तीर्थ स्थल यात्रा की योजना बना रहे हैं तो बौद्ध स्तूपों और विहारों से लेकर संग्रहालयों और खोदे गए प्राचीन स्थलों तक, सारनाथ में कई ऐतिहासिक स्थानों के दर्शन के लिए जाएं।
बौद्धों के लिए सबसे पवित्र स्थानों में से एक होने के लिए प्रसिद्ध, सारनाथ में वर्षों भर बौद्ध धर्म के अनुयायियों का आना-जाना लगा रहता है। इस शांत शहर में कुछ प्राचीन मठ और स्तूप हैं जो यह स्थान आकर्षण का केंद्र हैं और इसे देखने पर मजबूर करते हैं। यहां कुछ लोकप्रिय प्राचीन बौद्ध स्थापत्य कला में धमेक स्तूप, चौखंडी स्तूप, अशोक स्तंभ, महाबोधि समाज मंदिर और तिब्बती बौद्ध विहार शामिल हैं। सारनाथ हर साल अपने भव्य बुद्ध पूर्णिमा महोत्सव के लिए भी जाना जाता है। यहां अक्टूबर माह में बुद्ध की अस्थियों के दर्शन
सारनाथ (विपासना केंद्र) उत्तर प्रदेश
वाराणसी से दूरी: 10 किमी
यात्रा का सबसे अच्छा समय: अक्टूबर से मार्च
यात्रा टिप: वाराणसी सारनाथ से केवल कुछ किलोमीटर की दूरी पर है, इसलिए आप आसानी से वाराणसी के लिए उड़ान या ट्रेन ले सकते हैं और फिर दूरी तय करके मोटरसाइकिल या बस ले सकते हैं।
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6.कुशीनारा/कुशीनगर, उत्तर प्रदेश (भारत)
बौद्ध धर्म के सिद्धांतों के बीच बहुत महत्वपूर्ण अवशेष, गोरखपुर का बौद्ध स्थल वह स्थान है जहां भगवान बुद्ध का महापरिनिर्वाण प्राप्त हुआ था। भगवान बुद्ध की मृत्यु के बाद, सम्राट अशोक ने उनके महापरिनिर्वाण के अवशेष स्थान पर दर्शन के लिए एक स्तूप बनवाया था। स्तूप, जिसे महापरिनिर्वाण मंदिर के नाम से जाना जाता है, में दाहिनी ओर लेटे हुए भगवान बुद्ध की 6 फीट लंबी प्रतिमा है। यह बुद्ध मंदिर देश का एक प्रमुख तीर्थ स्थल है।
49 फीट लंबा एक स्तूप भी है, जिसे रामाभार स्तूप कहा जाता है, जो एक विशाल समूह के पर्वत के रूप में है। यह स्तूप उस स्थान पर बनाया गया है जहां भगवान बुद्ध का अंतिम संस्कार किया गया था। यह धार्मिक शहर वाट थाई मंदिर, माथा कुर तीर्थस्थल और बौद्ध नागरिकों द्वारा संचालित कई छोटे मंदिर और मठों का भी घर है। नासिक हर साल बुद्ध पूर्णिमा पर एक भव्य महल का आयोजन करता है और पूरे भारत से कई तीर्थयात्रियों और तीर्थयात्रियों को आकर्षित करता है।
यात्रा भ्रमण जानकारी
डिजिटल केंद्र से दूरी: 650 मीटर
महापरिनिर्वाण टेंपल/मंदिर का समय: सुबह 7:00 बजे से शाम 5:00 बजे तक
सप्ताह के हर दिन
यात्रा का सबसे अच्छा समय: नवंबर से फरवरी
यात्रा सलाह: मोटरसाइकिल या ऑटो-ट्रिप का सहारा ले सकते हैं।
अतिरिक्त जानकारी
यहां ध्यान साधना या मेडिटेशन के लिए विपासना केंद्र है, जिसे उत्तर प्रदेश के नाम से जाना जाता है।
7. संकाश्य या संकिसा
संकिसा का प्राचीन नाम संकाश्य है। महामाया लुंबनी ने गर्भ धारण करने के बाद सम्राट सम्राट को स्वप्न में जबकि हाथी को देखा था, जिसका प्रतीक स्वरूप अशोक द्वारा गजस्तंभ आज भी संकिसा में बनाया गया है।
सं करेंटकिसा एक टाइल पर बसा छोटा सा गांव है। टीला बहुत दूर तक फैला हुआ है, और यहां सम्राट अशोक द्वारा एक स्तूप बनाया गया था जो अब एक समूह का ढेर बन गया है।
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा भी इसे बौद्ध स्थान ही माना गया है। इस जगह पर किसी भी तरह की खुदाई या इमारात नहीं बनाई जा सकती। पास ही अशोक स्तम्भ का शीर्ष है, जिस पर हाथी की मूर्ति बनी है। अबाताइयों ने हाथी की सूंड को तोड़ दिया है।
संकाश्य या संकिसा भारतवर्ष के उत्तर प्रदेश राज्य के फिरोजाबाद जिले के पखना रेलवे स्टेशन से सात मील दूर काली नदी के तट पर, बौद्ध- धम्म स्थान है।
यात्रा की जानकारी :-
दिल्ली से प्रोजेक्ट की दूरी =351 किमी
योजना से भोगांव = 15 किमी
भोगांव से संकिसा की दूरी = 16 किमी
अतिरिक्त जानकारी :
उत्तर प्रदेश के फिरोजाबाद के निकट स्थित आधुनिक संकिसा ग्राम को ही प्राचीन संकिसा माना जाता है। कनिंघम ने अपनी कृति 'डी एसिएंट जियोग्राफी ऑफ इंडिया' संकिसा का विस्तार से वर्णन किया है।
8. श्रावस्ती, उत्तर प्रदेश (भारत)
महत्त्व
उत्तर प्रदेश के मध्य में स्थित श्रावस्ती, गौतम बुद्ध के युग के सबसे महत्वपूर्ण शहरों में से एक है। यह स्थान विशेष रूप से एक प्राचीन बोधिवृक्ष के आवास के लिए प्रसिद्ध है, जिसे आनंद बोधिवृक्ष कहा जाता है, जहां भगवान बुद्ध के प्रमुख शिष्यों ने एक स्थान स्थापित किया था। वृक्ष की शांति यह बौद्ध तीर्थयात्रियों के बीच गहन ध्यान के लिए सबसे पसंदीदा जगह से एक जगह है।
श्रावस्ती शहर में कुछ प्रसिद्ध और सुंदर मठ और स्तूप भी हैं जो देखने को मिलते हैं। अनाथपिंडिक स्तूप, अंगुलिमाल स्तूप और जेतवन विहार ध्यान और विपश्यना अभ्यास केंद्र लोकप्रिय स्थान हैं। यदि आप शिविर में उत्कृष्ट अनुभवी ध्यानियों से ध्यान सीखना चाहते हैं, तो आपको विभिन्न ध्यान योगों के लिए यहां विपश्यना ध्यान केंद्र का दौरा करना चाहिए।
अतिरिक्त जानकारी
उत्तर प्रदेश श्रावस्ती विपासना केंद्र
दिल्ली हवाईअड्डे से श्रावस्ती की दूरी
: 157 किमी
यात्रा का समय: सितंबर से नवंबर और फरवरी से अप्रैल
यात्रा की अवधि: आप रेलवे स्टेशन (19 किमी दूर) तक ट्रेन ले सकते हैं और फिर श्रावस्ती तक आराम से पहुंचने के लिए टैक्सी किराए पर ली जा सकती है।
वेसाली/वैशाली/वैशाली
महत्त्व
पाटलिपुत्र/पटना के पास, गंगा नदी के तट पर स्थित, ऑरेंज वह स्थान है जहाँ भगवान बुद्ध ने अपना अंतिम उपदेश दिया था।
वज्जी में पिछले कई सामुद्रिक अकाल पड़ रहे थे, बिम्बिसार के अनुरोध पर वज्जी के राजा के मित्र ने बुद्ध को भोजन दान के लिए आमंत्रित किया था, गोतम बुध जब वज्जी में प्रवेश कर रहे थे तो मूसलाधार वर्षा हुई जिससे वज्जी के मित्र ने बुद्ध को भोजन दान के लिए आमंत्रित किया ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि वज्जी के लोगों ने स्मारक का स्वागत किया। गौतम बुद्ध के बुद्धत्व प्राप्ति के बाद कई बार बुद्ध का आगमन-अवलोकन हुआ।
विचित्र से बार उत्तरी सीमा पर विदा होते हुए तथागत बुध ने ओझा के लोगों को अपनी भिक्षा - पात्र अंतिम स्मृति के रूप में दिया था।
यहां बुद्ध के अस्थि अवशेष पर लिच्छिवियों के राजा ने विशाल स्तूप पाया था। इसलिए, बिहार का यह छोटा सा जिला बौद्ध भिक्षुओं और तीर्थयात्रियों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है।
सम्राट अशोक ने यहां की यात्रा की थी इस महत्वपूर्ण घटना की स्मृति में सम्राट अशोक ने यहां एक विशाल अशोक स्तंभ भी स्थापित किया था।
बौद्धों के कई ऐतिहासिक मठ और स्तूप आदि हैं। गोतम बुध के अस्थिकलश और रैलीक स्तूप ऐतिहासिक ऐतिहासिक स्थल है। जहां से भगवान बुद्ध का अस्थि कलश प्राप्त हुआ था, यह स्थल रैलीक स्तूप आक्सीजन के नाम से प्रसिद्ध है।
भगवान बुद्ध का यह अस्थिकलश एकमात्र ऐसा मंदिर है जिसे बौद्ध धर्म के लोग मान्यता प्राप्त मानते हैं।
बुद्ध अस्थि कलश / अस्थि कलश / धातु स्तूप / अस्थि कलश / रैलिक स्तूप क्या है?
उत्तर = तथागत बुध के समसामयिक राजवंश द्वारा बुद्ध की अस्थियों/धातु जनजातियों को कलश में सुरक्षित रख कर उसके विशाल स्तूप का निर्माण किया गया था।
बौद्धों के लिए यह सबसे लोकप्रिय स्थानों में से एक है यह स्थान भगवान बुद्ध की अस्थियों को सुरक्षित रखता है।
लोकतंत्र की जननी गणतंत्र की अति प्राचीन भूमि थी, वहीं गोतम बुध की कर्मभूमि तो महावीर स्वामी की जन्मभूमि रही है और प्रसिद्ध नृत्यांगना आम्रपाली की रंगभूमि है।
अतिरिक्त जानकारी
जापान के धर्म गुरु फ़ूजी गुरुजी की प्रेरणा से दुनिया का 71वां सबसे ऊंचा विश्व शांति स्तूप आस्को में बनाया गया है। 22 अक्टूबर 1983 को इस स्तूप की मूर्ति का उद्घाटन राष्ट्रपति डॉ. शंकर मूर्ति शर्मा ने किया, जिसमें पूज्य गुरु जी सत्यनारायण गोयनका जी के दर्शन हुए।
राष्ट्रीय बुद्ध सम्यक दर्शन संग्रहालय
72 ओक विशाल भूमि में राष्ट्रीय बुद्ध सम्यक संग्रहालय का निर्माण जारी है। यह 550 करोड़ की लागत से अंतर्राष्ट्रीय शिखर सम्मेलन को विश्व के पर्यटन मानचित्र पर स्थापित किया गया है।
और एस्ट्रोलॉजी के आकर्षण का केंद्र बिंदु बने रहें।
सन 1958 में सागर तट पर डॉक्टर ए.एस. अलतेकर के नेतृत्व में हुई थी। तब यहां पर बुद्ध के अस्थि मंदिर का मिलन हुआ था। यहां से प्राप्त भगवान बुद्ध की अस्थि कलश यात्रा के दर्शन पटना संग्रहालय में संरक्षित हैं।
इन बुद्ध अस्थि कलश को कुछ दिनों बाद ही बौद्ध संग्रहालय में रख दिया गया। रैलीक स्तूप बौद्ध भिक्षुओं के साथ-साथ देश-विदेश के दर्शन के लिए भी आकर्षण का केंद्र है। यहां घेराबंदी के साथ ही रंग-बिरंगे फूलों की क्यारियां सजाकर का यह दृश्य बनाया गया है।
भगवान बुद्ध के महापरिनिर्वाण को प्राप्त करने के बाद उनके पौराणिक अवशेषों में से आठ मूर्तियों में से एक को स्थापित किया गया है।
विचित्र जिलों में बुद्ध महल स्तूप का निर्माण ईसा पूर्व पांचवीं शताब्दी में लिच्छवी द्वीप में मिट्टी के स्तूप के रूप में किया गया था। बौद्धों के लिए सबसे प्रतिष्ठित स्थानों में से एक और भारतीय वैज्ञानिक सर्वेक्षण के लिए यह सुरक्षित है।
जापान के धर्म गुरु फ़ूजी गुरुजी की प्रेरणा से दुनिया का 71वां सबसे ऊंचा विश्व शांति स्तूप आस्को में बनाया गया है। 22 अक्टूबर 1983 को इस स्तूप की मूर्ति का उद्घाटन राष्ट्रपति डॉ. शंकर मूर्ति शर्मा ने किया, जिसमें पूज्य गुरु जी सत्यनारायण गोयनका जी के दर्शन हुए।
पूर्वी भाग में अतिप्राचीन बौद्ध विहार है। इसकी स्थापना फ़ूजी गुरु जी ने भी की थी। यहां सालभर इंटरनेट का आना-जाना लगा रहता है।
जनरल कनिंघम ने इस खाई की चौड़ाई 60 मी बताई है। यहां पुरातत्व विभाग में कई बार खुदाई कराई गई जिसमें टेराकोटा और धातु के कई टुकड़े मिले। इन आश्रम को संग्रहालय में सुरक्षित रखा गया है।
इस स्तूप को बाद में 1958 से 1952 के दौरान पटना स्थित के.पी.जयसवाल इंस्टीट्यूट के तत्वाधान में भव्य स्मारक में खोला गया था। इस स्तूप के मूल से खोदे गए मंदिर में भगवान बुद्ध की मिट्टी में मिली हुई पवित्र राख, शंख का एक टुकड़ा, मोतियों के टुकड़े, एक परत सुनहरी की मूर्ति और एक टुकड़े का पंच ढोल का टुकड़ा था। यह ताबूत 1972 में पटना संग्रहालय में लाया गया था।
अशोक लाट /अशोक स्तम्भ
वर्तमान सम्राट अशोक की महान स्वर्णिम कालीन विरासत और इतिहास की खोज की गई है। अशोक स्तम्भ के अलावा, यहाँ अष्टधातु में बुद्ध शांति स्तूप/चैत्य विश्व प्रसिद्ध है।
कलिंग विजय के बाद जब लाखों लोगों की जान चली गई, तो लहुलुहान में सम्राट अशोक के मन में करुणा और दया का भाव जगा तो बुद्ध के धम्म के प्रचार प्रसार के लिए सैंकड़ों स्थानों पर धम्म लाट/स्तंभों का निर्माण किया गया। था. जनरल कनिंघम ने इस जगह की खुदाई सन ....... ईस्वी में करवायी थी। यहां अशोक स्तंभ के सिर पर सिंह की एक मूर्ति है जो उत्तर मुख की ओर है।
भ्रमण जानकारी
एयरपोर्ट दिल्ली से दूरी -
पटना से दूरी: 47 किमी
पटना से.........दिशा
यात्रा करने का समय: अक्टूबर से मार्च
यात्रा टिप: इस स्थान पर बहुत तेज़ गर्मी है, इसलिए अप्रैल और जून के बीच यात्रा की योजना बनाई गई है।
जिज्ञासु बेकारी के लिए कुछ प्रश्न:
विश्व के सभी बौद्ध धर्म के अनुयायियों से अनुरोध है कि भारत के सभी प्राचीन बौद्ध स्थलों की यात्रा करें और जानें कि विश्व बौद्ध धर्म के सम्राट कौन हैं?
सम्राट अशोक महान की विरासत कैसे है?
विश्व में अखंड भारत की पहचान गोतम बुध/बुद्ध और सम्राट अशोक से क्यों है?
साँची, मध्य प्रदेश (भारत) बौद्ध स्थल
मध्य प्रदेश में भोपाल के पास स्थित, साँची का ऐतिहासिक स्थल भारत के कुछ सबसे पुराने बौद्ध पत्थरों के स्मारकों के बारे में जाना जाता है। हालाँकि, यह महान साँची स्तूप सूची में सबसे ऊपर है। एक पहाड़ी पर स्थित, 37 मीटर सामीत अर्धगोलाकार स्मारक वाला 50 फीट ऊंचा स्तूप तीसरी शताब्दी में मौर्य राजवंश के सम्राट अशोक द्वारा बनवाया गया था। यह कई महत्वपूर्ण बौद्ध आदिवासियों के साथ-साथ भगवान बुद्ध के धातु स्मारकों का स्तूप है। भारत के कारखाने और स्थापत्य इतिहास का एक सुंदर उदाहरण, साँची स्तूप को 1989 में विश्व धरोहर स्थल द्वारा घोषित किया गया था।
यात्रा भ्रमण संबंधी जानकारी:
सांची स्तूप का समय: सुबह 6:30 बजे से शाम 6:30 बजे तक; सप्ताह के 7 दिन
प्रवेश शुल्क (प्रति व्यक्ति):
भारतीय: INR 40
विदेशी: INR 600
भोपाल से दूरी: 48 किमी
यात्रा का सबसे अच्छा समय: नवंबर से मार्च
यात्रा टिप: जंक्शन के बाहरी टिकट काउंटर पर लंबी कतारों से बचने के लिए आप सांची स्तूप प्रवेश टिकट ऑनलाइन खरीद सकते हैं।
अतिरिक्त जानकारी:
सांची स्तूप परिसर में प्राचीन स्तूप, मठ, एक बलुआ पत्थर का स्तंभ जिसे अशोक स्तंभ कहा जाता है, चार प्रवेश द्वार, महान बाउल और गुप्त मंदिर शामिल हैं। निर्मित, कला और वास्तुकला का प्रदर्शन करने वाली ये संरचनाएँ समृद्ध बौद्ध संस्कृति का आदर्श उदाहरण हैं।
रामग्राम स्तूप
कहा जाता है कि रामग्राम स्तूप में आठ स्थानों में से एक है जहां बुद्ध के दाह संस्कार के बाद उनके शरीर के अवशेष रखे गए थे। यह वास्तव में ऐसा है जो कभी प्रकट नहीं हुआ।
इसमें कहा गया है कि जब बुद्ध की मृत्यु हुई, तो उनके शरीर का अंतिम संस्कार कर दिया गया और आठ राज्यों में कुचल दिया गया। इनमें से प्रत्येक राज्य ने बुद्ध के अवशेषों को अपने-अपने स्तूप में दफन कर दिया। उसके बाद के वर्षों में, उनमें से एक को पूरी तरह से खोल दिया गया है और सामग्री को दुनिया भर में भर दिया गया है। जो स्तूप कभी नहीं खुला वह रामग्राम में है।
किंवदंती है कि सम्राट अशोक 249 ईसा पूर्व में रामग्राम के स्तूप में आए थे और इसे और बुद्ध के अवशेषों को पुनः प्राप्त करने की योजना बनाई थी। लेकिन, जब वह पहुंचे, तो उन्हें एक नाग देवता के दर्शन मिले, उन्होंने कहा कि उन्होंने इस स्थान पर हस्तक्षेप नहीं किया, और इसलिए उन्होंने इसे अकेले छोड़ दिया और इसके बजाय इसकी पूजा की।
आज, आप केवल एक घास का टीला देख पाएंगे, लेकिन कारखाने के काम से पता चला है कि इसके अंदर एक स्तूप है। हालांकि विशेषज्ञ ने स्थल का अध्ययन किया है, लेकिन इसकी पवित्रता बनाए रखने के लिए स्तूप को किसी भी तरह से ठोस नहीं बनाया गया है ।
जब आप जाएंगे तो आपको टाइल के ऊपर एक बड़ा पेड़ भी दिखाई देगा। इसमें, यदि आप वास्तव में भूत-प्रेत से देखें, तो आपको पता चलेगा कि वास्तव में विभिन्न जानवरों के चार पेड़ हैं, जो एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं और एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। तीर्थयात्रियों के लिए, यह बौद्ध धर्म के आदर्श का एक महत्वपूर्ण प्रतीक है।
राजगीर
राजगीर, पुराना नाम राजगृह, जिसका अर्थ है "राजस्थान का शहर", भारत के बिहार राज्य के आश्रम जिले में स्थित एक प्राचीन शहर है। मौर्य साम्राज्य की राजधानी के साथ-साथ बुद्ध, महावीर और बिम्बिसार जैसे ऐतिहासिक लोगों का निवास स्थान रहा है क्योंकि यह बौद्ध शहर और जैन धर्मग्रंथों में प्रमुख स्थान रहा है ।
इसमें भारत के प्राचीन साहित्य, टिपिटक का उल्लेख है। यह शहर जैन धर्म और बौद्ध धर्म में भी उल्लेखनीय है। 6वीं शताब्दी ईसा पूर्व में बुद्ध के राजा बिम्बिसार ने यहां एक वन में मठ की स्थापना की थी। इस प्रकार, राजगीर शहर में बुद्ध का सबसे महत्वपूर्ण स्थान बन गया।
महाकश्यप की प्रार्थना पर तथागत के तीन माह बाद राजगृह में पहला संगीत समारोह राजगृह की सप्तपर्णी गुफा में हुआ जिसमें 500 अर्हंत भिक्खु शामिल थे।
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