akkocchi maṃ avadhi maṃ - Dhammapadapali
धम्मपदपालि
Dhammapadapali
akkocchi maṃ avadhi maṃ ajini maṃ ahāsi me
ye ca taṃ upanayhanti veraṃ tesaṃ na sammati
Dhammapada - Stories
3.
अक्कोच्छि मं अवधि मं अजिनि मं अहासि मे ।
ये च तं उपनय्हन्ति वेरं तेसं न सम्मति ॥ ३ ॥
अनु० : मुझे गाली दी, मुझे मारा, मुझे हरा दिया, मुझे लूट लिया-ऐसी बातें जो सोचते रहते हैं, मन में बांधे रखते हैं, उनका वैर कभी शान्त नहीं होता।
भावार्थ : तथागत जब सावत्थी में विहार कर रहे थे। थुल्ली तिस्स नामक चचेरे भाई जो वृद्धावस्था में भिक्षु बने थे, अपने से बड़े भिक्षुओं का आदर-सत्कार नहीं करते थे। एक दिन कुछ आगन्तुक भिक्षुओं ने उन्हें डांटा; तब वे दु:खी होकर तथागत के पास गये। लेकिन तथागत बुद्ध ने थुल्लीतिस्स को ही उनसे क्षमा माँगने को कहा, किन्तु उन्होंने क्षमा नहीं माँगी। इस पर तथागत उक्त गाथा को सुनाते हुए कहा कि "पूर्वजन्म में भी वैसा ही इसने किया था"।
जो व्यक्ति यह सोचते रहे कि उसने मुझे गाली दी, धोखा दिया, दे रहा है और भविष्य में भी देगा, मेरे मित्र को धोखा दिया, दे रहा है और भविष्य में भी देगा, मित्र को धोखा दिया, दे रहा है और भविष्य में भी देगा तथा मेरे शत्रु की इसने सेवा की, कर रहा है और भविष्य में भी करेगा,
जो ऐसा सोचते रहेगा, वह कभी भी शान्त नहीं रह सकता, न वह कभी अपने शत्रुओं कभी जीत सकता है। उसी प्रकार यदि कोई व्यक्ति यह सोचे कि उसके पैर में काँटा चुभ रहा है, अतः जमीन पर चर्म बिछाया जाये लेकिन उतना चमड़ा कहाँ से मिलेगा, जो सम्पूर्ण जमीन को ढक सके? क्या ही अच्छा होता, यदि वह यह जान ले कि छोटे से चमड़े का जूता बनाकर पहन लेने से दुनियाँ के किसी भी कोने में बिना पैर में काँटा चुभे जा सकता है । उसी प्रकार व्यक्ति यदि अपने अन्दर विद्यमान द्वेष, क्रोध आदि को नष्ट कर दें, तो बाह्य शत्रु उसका क्या बिगाड़ सकता है। ऐसा न कर, क्रोध को अपने अन्दर पालकर, उसने मुझे धोखा दिया, मेरे मित्र को धोखा दिया आदि सोच अपने शत्रुओं का नाश करना चाहें, तो यह कभी भी संभव नहीं होगा, अपितु शत्रुओं की श्रृंखला ही बढ़ती जाएगी।
आज तक दुनियाँ के इतिहास में सामान्य व्यक्ति तो क्या, बहुत बड़ा सम्राट्भी अपने सभी दुश्मनों को नष्ट नहीं कर सका, अतः व्यक्ति को चाहिये कि वह बिना हाथ, पैर, मुँह वाला अर्थात् जिसका कोई रूप ही न हो ऐसे द्वेष या क्रोध को अपने मन से बाहर फेंक दें, तभी उसे शान्ति मिलेगी। सामान्य जन के लिये यद्यपि यह कठिन अवश्य है, लेकिन असंभव नहीं है । उदाहरण के लिये यदि कुष्ठ रोग से ग्रस्त व्यक्ति, जिसके हाथ-पैर एक दम गले जा रहे हों और वह चाहे कि दवाई की एक पुड़िया खाये और ठीक हो जाये तो यह संभव नहीं है, लेकिन निरन्तर औषधि के सेवन से ठीक हुआ जा सकता है । उसी प्रकार जो व्यक्ति असंख्य कल्पों से राग-द्वेष से संस्कारित, प्रभावित एवं पल्लवित हैं, वह धर्म दर्शन की बातों को सुनने मात्र या कुछ समय के प्रयास से चाहे कि राग-द्वेष नष्ट कर लेगा, ऐसी आशा नहीं करनी चाहिये। अतः साधना में धैर्य और निरन्तरता बनाये रखनी चाहिये। उसके बिना हम निर्वाण की प्राप्ति या परम सुख की प्राप्ति नहीं कर सकते।
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