अक्कोच्छि मं अवधि मं - धम्मपदपालि
4.
अक्कोच्छि मं अवधि मं अजिनि मं अहासि मे ।
ये च तं नुपनय्हन्ति वेरं तेसूपसम्मति ।। ४ ।।
अनु० : मुझे गाली दी, मुझे मारा, मुझे पराजित किया, ऐसा जो मन में
नहीं सोचता, उसी का वैर (शत्रु) शान्त होता है ।। ४।।
भावार्थ : यद्यपि अपने शत्रुओं के प्रति अवैर की भावना (विचार) तुरन्त नहीं उत्पन्न हो सकती, लेकिन किसी शत्रु के द्वारा पहुँचाये गये आघात को पत्थर में खुदे अक्षर की तरह दृढ़ता से पकड़ करके नहीं रखना चाहिये । प्रयास करना चाहिये कि जैसे मिट्टी या रेत पर कुछ लिखे की भाँति क्रोध आदि कुछ क्षण भले ही रहे, लेकिन क्षण-भर के बाद मिट्टी पर लिखे अक्षर जैसे मिट जाते हैं, उसी प्रकार प्रयास कर शत्रु के प्रति वैरभाव भुला देना चाहिये। क्रमशः प्रयास से एक ऐसा समय आयेगा जब क्रोध आदि क्लेश जैसे समुद्र में लहर या पानी के ऊपर खींची रेखा की तरह क्षण भर में समाप्त हो जाएगा। रेखा क्या खिंची, उसी समय पानी भर गया। इसी तरह क्रोध क्या आया, उसी समय शान्त हो गया। यही परम शान्ति की अवस्था का द्योतक है। संसार में रहते हुये ऐसा कथमपि संभव नहीं है कि हमारा अहित न होगा। यह संसार का स्वभाव है, यहाँ दुःख है, समस्यायें हैं। जैसे आप आँख खोलें और सामने की वस्तु को न देखें, ऐसा हो नहीं सकता, उसी प्रकार संसार में जीते जी यह संभव नहीं कि आप बिना समस्या के रह सकें एवं निन्दा आदि के बिना जी सकें । अतः यह प्रयास होना चाहिये कि किसी के द्वारा किये गये निन्दा आदि के प्रतिशोध की भावना को अपने अन्दर कम से कम समय टिकने दें। यदि कोई हमारा अहित कर देता है, तो क्रोध किये बगैर यह देखना
चाहिये कि क्या उसका समाधान या उपचार हो सकता है? यदि सम्भव है तो उसे बनाने, संवारने में अपनी बुद्धि को लगाना चाहिये। यदि उसका निदान संभव न हो तो व्यर्थ में क्यों दुःखी या कुपित होकर रहें? उदाहरण के लिये यदि किसी मित्र ने आपकी बहुमूल्य चीज को खो दी हो, उस पर गुस्सा करने की अपेक्षा उसे कैसे खोज निकाला जाये, इस पर विचार करना चाहिये, न कि क्रोध कर और अधिक अपनी हानि करनी चाहिये? वैसे ही यदि कोई बहुमूल्य चीज़ जलकर राख हो गई हो, तो उसका कोई अब उपचार या समाधान न बचा हो, तो अपना कर्मफल मानकर उसे स्वीकार कर लेना चाहिये, न कि क्रोध कर अपने अन्दर एवं परिवार के वातावरण में परेशानी पैदा करना चाहिए। सुखी जीवन जीने की यही कला बुद्ध ने उपदिष्ट की है ।। ४ ।।
अक्कोच्छि मं अवधि मं अजिनि मं अहासि मे ।
ये च तं नुपनय्हन्ति वेरं तेसूपसम्मति ।। ४ ।।
अनु० : मुझे गाली दी, मुझे मारा, मुझे पराजित किया, ऐसा जो मन में
नहीं सोचता, उसी का वैर (शत्रु) शान्त होता है ।। ४।।
भावार्थ : यद्यपि अपने शत्रुओं के प्रति अवैर की भावना (विचार) तुरन्त नहीं उत्पन्न हो सकती, लेकिन किसी शत्रु के द्वारा पहुँचाये गये आघात को पत्थर में खुदे अक्षर की तरह दृढ़ता से पकड़ करके नहीं रखना चाहिये । प्रयास करना चाहिये कि जैसे मिट्टी या रेत पर कुछ लिखे की भाँति क्रोध आदि कुछ क्षण भले ही रहे, लेकिन क्षण-भर के बाद मिट्टी पर लिखे अक्षर जैसे मिट जाते हैं, उसी प्रकार प्रयास कर शत्रु के प्रति वैरभाव भुला देना चाहिये। क्रमशः प्रयास से एक ऐसा समय आयेगा जब क्रोध आदि क्लेश जैसे समुद्र में लहर या पानी के ऊपर खींची रेखा की तरह क्षण भर में समाप्त हो जाएगा। रेखा क्या खिंची, उसी समय पानी भर गया। इसी तरह क्रोध क्या आया, उसी समय शान्त हो गया। यही परम शान्ति की अवस्था का द्योतक है। संसार में रहते हुये ऐसा कथमपि संभव नहीं है कि हमारा अहित न होगा। यह संसार का स्वभाव है, यहाँ दुःख है, समस्यायें हैं। जैसे आप आँख खोलें और सामने की वस्तु को न देखें, ऐसा हो नहीं सकता, उसी प्रकार संसार में जीते जी यह संभव नहीं कि आप बिना समस्या के रह सकें एवं निन्दा आदि के बिना जी सकें । अतः यह प्रयास होना चाहिये कि किसी के द्वारा किये गये निन्दा आदि के प्रतिशोध की भावना को अपने अन्दर कम से कम समय टिकने दें। यदि कोई हमारा अहित कर देता है, तो क्रोध किये बगैर यह देखना
चाहिये कि क्या उसका समाधान या उपचार हो सकता है? यदि सम्भव है तो उसे बनाने, संवारने में अपनी बुद्धि को लगाना चाहिये। यदि उसका निदान संभव न हो तो व्यर्थ में क्यों दुःखी या कुपित होकर रहें? उदाहरण के लिये यदि किसी मित्र ने आपकी बहुमूल्य चीज को खो दी हो, उस पर गुस्सा करने की अपेक्षा उसे कैसे खोज निकाला जाये, इस पर विचार करना चाहिये, न कि क्रोध कर और अधिक अपनी हानि करनी चाहिये? वैसे ही यदि कोई बहुमूल्य चीज़ जलकर राख हो गई हो, तो उसका कोई अब उपचार या समाधान न बचा हो, तो अपना कर्मफल मानकर उसे स्वीकार कर लेना चाहिये, न कि क्रोध कर अपने अन्दर एवं परिवार के वातावरण में परेशानी पैदा करना चाहिए। सुखी जीवन जीने की यही कला बुद्ध ने उपदिष्ट की है ।। ४ ।।
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