Dhammapada - Stories

धम्मपदपालि 

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धम्मपद सुत्तपिटक के खुद्दक निकाय का अंग है। धम्मपद, इसे अगर मानवता की दिग्दर्शिका कहा जाये तो अतिसोक्ति नहीं होगी।  धम्मपद भगवान बुद्ध के वचनों का संग्रह है। जिसमे २६ वग्ग अर्थात वर्ग, जिसमे कुल  ४२३ गाथाएं हैं। गाथा का शाब्दिक अर्थ होता है गये पद अर्थात वे पद जिनका संगायन किया जिसके। धम्मपद की प्रत्येक गाथा गये है। ये दुनिया का अकेला ग्रन्थ है जिसका का अनुवाद विश्व की लगभग सभी भाषों में हुआ है।  जर्मनी के सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक मैक्स म्युलर का कहना, पालि ग्रन्थ धम्मपद मेरे लिए अत्यंत प्रिय है। 

1. 

मनोपुब्बङ्गमा धम्मा मनोसेट्ठा मनोमया। 

मनसा चे पदुट्ठेन भासति वा करोति वा। 

ततोनं दुक्खमन्वेति चक्कं' व वहतो पदं।।१।।  

सभी शारीरिक, वाचिक और चैतसिक कर्म पहले मन में आते हैं।  मन ही मुखिया है, अतः वे मनोमय हैं। जब व्यक्ति सदोष मन से बोलता है, काम करता है तो वह कष्ट, दुःख को उसी प्रकार भोगता है, बैलगाड़ी के पहिये बैल के पैरों के पीछे-पीछे आते हैं ।

भावार्थ 

तथागत बुद्ध जब सावत्थी  के जेतवन महाविहार में रहते थे, उस समय वहाँ चक्खुपाल नाम के  एक अन्धे अर्हत् भिक्खु  रहते थे। जब वे इधर-उधर विचरण करते थे तो उनके पैरों के नीचे बहुत से कीड़े-मकोड़े दबकर मर जाते
थे। भिक्षुओं ने तथागत बुद्ध से कहा "चक्खुपाल अर्हत्त्व प्राप्ति की वज़ह से भाग्यवान् होते हुए भी क्यों अन्धे हो गये? तथा अर्हत् से जीव हिंसा भी नहीं होनी चाहिये थी।" उसके उत्तर में भगवान् ने उक्त गाथा को सुनाते हुए कहा था
 “चक्खुपाल अपने पूर्वजन्म में एक बार वैद्य थे, उन्होंने बुरे विचार से एक स्त्री की आँखें को फोड़ डाली थीं, उसी का यह परिणाम है। व्यक्ति द्वारा सम्पादित कर्म उसका वैसे ही पीछा करते हैं जैसे बैलगाड़ी में नथे हुए बैलों के
पैरों के पीछे-पीछे चक्के (पहिये) चलते हैं। अतः चक्खुपाल अपने किये के कारण अन्धे हो गये हैं। लेकिन अब इसने अर्हत्त्व पद प्राप्त कर लिया है, अर्हत में जीव हिंसा करने की चेतना नहीं होती, इसलिए इसे हिंसा नहीं माना जाएगा।
क्योंकि पाप और पुण्य कर्म का निर्धारक चित्त होता है"।

    आपका विचार अच्छा हो तो उससे मार्ग या साधन भी अच्छा होगा और उससे प्राप्त होने वाला फल भी उपकारी, कल्याणकारी ही होगा। यदि विचार बुरा हो तो उसका मार्ग (साधन) और परिणाम (फल) भी बुरा ही मिलेगा।
अतः निरन्तर अपने अन्दर अच्छे विचारों को पैदा करने का प्रयास करना चाहिये। इस प्रसंग में यह घटना विचारणीय है – दो छोटे-छोटे लड़के खेलते हुए किसी सम्राट् के महल के बाहर पहुँच गये। उनमें से एक बच्चे के मन में आया कि यह कितना विशाल महल है, निश्चित ही जो इसमें रहता होगा, वह कितना महान् होगा? कितने लोगों का कल्याण करने वाला होगा? वहीं, दूसरा लड़का सोचने लगा कि यदि मैं इस विशाल महल का मालिक होता तो सैकड़ों सुन्दर लड़कियों का उपभोग करता और जो मेरा कहना नहीं मानता उसे मैं हाथी के पैरों तले कुचलवा देता। इस प्रकार बुरा विचार करते हुए वह वहीं अपने मित्र के साथ महल के द्वार के पास सो गया। जब रात को वहाँ से राजा की रथगाड़ी गुजरी तो अन्धेरे में उसके शरीर पर रथगाड़ी चढ़ गई और वह वहीं मर गया। जब उसका मित्र इसे देख बिलखने लगा तो महाराज ने देख लिया और कारण पूछने पर पता चला कि रथगाड़ी के नीचे आ जाने से उसका मित्र मर गया। इस पर राजा अत्यन्त दुःखी हुआ। राजा स्वयं भी कई वर्षों से सन्तान विहीन था, अतः उसने उस मृतक के मित्र को अपने सन्तान के रूप में स्वीकार कर लिया। वह लड़का आगे चलकर राजा बन गया और अपने परोपकारी विचार के कारण हजारों लोगों का कल्याण करने वाला अत्यन्त प्रसिद्ध राजा बना। अतः जो अच्छा
विचार करता है उसे अच्छा ही अच्छा मिलता है, जो बुरा सोचता है उसका परिणाम भी बुरा ही मिलता है। वास्तव में यदि आप अच्छे होते हैं तो सभी का आप भला करना चाहेंगे और करेंगे। यदि आप अपने में बुरे हैं तो सभी आपको
बुरे ही लगने लगेंगे और दूसरों के प्रति आपका बर्ताव भी वैसा ही होगा। इस कारण आप को दुःख ही दुःख होगा। 

         अतः आध्यात्मिक गुरु दलाई लामा जी भी अपने उपदेशों में बार-बार यही कहते हैं कि यदि आप अपना हित पूर्ण करना चाहते हैं तो दूसरों का हित ज्यादा से ज्यादा करने में जुट जाना चाहिए, इससे आपका अपना हित ही ज्यादा होगा, क्योंकि आपको चाहने वाले ज्यादा होंगे और इससे आपका अपना इष्ट कार्य भी अनायास सिद्ध होगा। अत: अच्छा और बुरा सबसे पहले मन में ही उत्पन्न होता है, इसलिए मन ही सर्वोपरि है। अतः मन पर नियन्त्रण करने का सदैव प्रयास करें। यही एक प्रकार से इहलोक और परलोक के सुख का आधार है। मन ही संसार में बन्धन और उससे मुक्ति का प्रमुख हेतु है। वस्तुतः अविद्या, राग, द्वेष आदि क्लेशों से वासित (ग्रसित) चित्त ही संसार है और इन क्लेशों से विमुक्त चित्त ही निर्वाण है। इसलिए चित्त ही सभी धर्मों में प्रमुख हैं । 

बौद्धों की दृष्टि में व्यक्ति का व्यक्तित्व मात्र जडरूपी या मात्र चेतनारूपी हो ऐसा नहीं है। जड़ और चेतन अर्थात् पंच महाभूत और चेतना (मन) जो एक दूसरे के पूरक हैं, से बना है। व्यक्ति अर्थात् पुद्गल को पंचस्कन्धात्मक कहा है।
पञ्चस्कन्ध हैं—रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान, अर्थात् यह नामरूप भी कहलाता है। इनमें से रूप स्कन्ध ही मात्र जडस्वरूप है, शेष चार स्कन्ध चित्त-चैतसिक स्वरूप हैं। अतः जहाँ एक भाग जड अंश है, वहीं चार भाग चेतनामय अंश हैं। इसलिए जितनी बाह्य जगत् की विशालता है, वहीं उससे कई गुना बड़ा हमारी आन्तरिक जगत् है । इसका अनुभव हम रात-दिन, यहाँ तक कि स्वप्नों में भी करते रहते हैं। हमारा मानसिक सोच ही हमारे अच्छे और बुरे कर्मों का प्रेरक है। हर कार्य का प्रारूप सर्वप्रथम हमारे मन-मस्तिष्क में ही होता है, उसी का प्रतिबिम्ब काय, वाक् आदि कर्मों के रूप में बाह्य जगत् में प्रकट होता है। अतः व्यक्ति के शारीरिक, वाचिक और मानसिक कर्मों से उसकी मनोदशा को समझ सकते हैं। 

व्यक्ति, गाँव, समाज एवं राष्ट्र, आभ्यन्तर विचार, संस्कार और सम्बन्ध का ही परिणाम है। जैसा आपका विचार होगा, संस्कार होगा, वैसा ही बाहर व्यवहार प्रकट होगा और वैसा ही अन्य से भी सम्बन्ध स्थापित करेगा तथा व्यक्ति, गाँव, समाज एवं राष्ट्र का स्वरूप भी वैसा ही होगा। हमारे समाज में जो साम्प्रदायिकता, आर्थिक प्रतिस्पर्धा, जातिगत एवं भाषागत ऊँच-नीच का भेद-भाव आदि जो-जो समस्यायें हमारे सामने हैं, जिनसे हम लड़ रहे हैं, वह हमारे मन
के अन्दर होने वाले विस्तृत द्वन्द्व एवं युद्ध का बाहरी रूप अर्थात् परिणाम ही है। अतः जब तक हम अपने मन को नियन्त्रित नहीं करते, तब तक हम न स्वयं शान्त हो सकते हैं और न आदर्श समाज का निर्माण कर सकते हैं। व्यक्ति के समूह का नाम ही समाज है। अतः बुद्ध मन को ही अच्छे और बुरे कर्मों का प्रवर्तक एवं निर्माता मानते हैं। क्योंकि मन के अच्छा होने पर ही व्यक्ति अच्छा होगा और इस तरह समूचा विश्व शान्ति एवं सुखमय होगा। सम्पूर्ण बौद्ध वाङ्मय मन या चित्त को ही नियन्त्रण करने की विधि बताती है ।

इन्हें भी देखें 

धम्मपद [पालि एवं भोटपाठ ] हिंदी एवं किन्नौरी अनुवाद तथा हिंदी व्याख्या, अनुवादक एवं व्याख्याकार डॉ0 वङ्छुग दोर्जे नेगी २००३ ताइवान। 

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